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DOWNLOAD NOWजब तुम मेरे साथ रहती हो तो प्रायः मुझसे बहुत-सी बातें पूछा करती हो और मैं उनका जवाब देने की कोशिश करता हूँ। लेकिन, अब, जब तुम मसूरी में हो और मैं इलाहाबाद में, हम दोनों उस तरह बातचीत नहीं कर सकते। इसलिए मैंने इरादा किया है कि कभी-कभी तुम्हें इस दुनिया की और उन छोटे-बड़े देशों की जो इन दुनिया में हैं, छोटी-छोटी कथाएँ लिखा करूँ। तुमने हिंदुस्तान और इंग्लैंड का कुछ हाल इतिहास में पढ़ा है।
जब तुम मेरे साथ रहती हो तो प्रायः मुझसे बहुत-सी बातें पूछा करती हो और मैं उनका जवाब देने की कोशिश करता हूँ। लेकिन, अब, जब तुम मसूरी में हो और मैं इलाहाबाद में, हम दोनों उस तरह बातचीत नहीं कर सकते। इसलिए मैंने इरादा किया है कि कभी-कभी तुम्हें इस दुनिया की और उन छोटे-बड़े देशों की जो इन दुनिया में हैं, छोटी-छोटी कथाएँ लिखा करूँ। तुमने हिंदुस्तान और इंग्लैंड का कुछ हाल इतिहास में पढ़ा है। लेकिन इंग्लैंड केवल एक छोटा-सा टापू है और हिंदुस्तान, जो एक बहुत बड़ा देश है, फिर भी दुनिया का एक छोटा-सा भाग है। अगर तुम्हें इस दुनिया का कुछ हाल जानने का शौक है, तो तुम्हें सब देशों का, और उन सब जातियों का जो इसमें बसी हुई हैं, ध्यान रखना पड़ेगा, केवल उस एक छोटे-से देश का नहीं जिसमें तुम पैदा हुई हो।
मुझे मालूम है कि इन छोटे-छोटे पत्रों में बहुत थोड़ी-सी बातें ही बता सकता हूँ। लेकिन मुझे आशा है कि इन थोड़ी-सी बातों को भी तुम शौक से पढ़ोगी और समझोगी कि दुनिया एक है और इसमें बसे दूसरे लोग हमारे ही भाई-बहन हैं। जब तुम बड़ी हो जाओगी तो तुम दुनिया और उसके आदमियों का हाल मोटी-मोटी किताबों में पढ़ोगी। उसमें तुम्हें जितना आनंद मिलेगा उतना किसी कहानी या उपन्यास में भी न मिला होगा।
यह तो तुम जानती ही हो कि यह धरती लाखों करोड़ों, वर्ष पुरानी है, और बहुत दिनों तक इसमें कोई आदमी न था। आदमियों के पहले सिर्फ जानवर थे, और जानवरों से पहले एक ऐसा समय था जब इस धरती पर कोई जानदार चीज न थी। आज जब यह दुनिया हर तरह के जानवरों और आदमियों से भरी हुई है, उस जमाने का खयाल करना भी मुश्किल है जब यहाँ कुछ न था। लेकिन विज्ञान जाननेवालों और विद्वानों ने, जिन्होंने इस विषय को खूब सोचा और पढ़ा है, लिखा है कि एक समय ऐसा था जब यह धरती बेहद गर्म थी और इस पर कोई जानदार चीज नहीं रह सकती थी। और अगर हम उनकी पुस्तकें पढ़ें, पहाड़ों और जानवरों की पुरानी हड्डियों को गौर से देखें तो हमें खुद मालूम होगा कि ऐसा समय जरूर रहा होगा।
तुम इतिहास किताबों में ही पढ़ सकती हो। लेकिन पुराने जमाने में तो आदमी पैदा ही न हुआ था; पुस्तकें कौन लिखता? तब हमें उस जमाने की बातें कैसे मालूम हों? यह तो नहीं हो सकता कि हम बैठे-बैठे हर एक बात सोच निकालें। यह बड़े मजे की बात होती, क्योंकि हम जो चीज चाहते सोच लेते, और सुंदर परियों की कहानियाँ गढ़ लेते। लेकिन जो कहानी किसी बात को देखे बिना ही गढ़ ली जाए वह ठीक कैसे हो सकती है? लेकिन खुशी की बात है कि उस पुराने जमाने की लिखी हुई पुस्तकें न होने पर भी कुछ ऐसी चीजें हैं जिनसे हमें उतनी ही बातें मालूम होती हैं जितनी किसी पुस्तक से होतीं। ये पहाड़, समुद्र, सितारे, नदियाँ, जंगल, जानवरों की पुरानी हड्डियाँ और इसी तरह की और भी कितनी ही चीजें हैं जिनसे हमें दुनिया का पुराना हाल मालूम हो सकता है। मगर हाल जानने का असली तरीका यह नहीं है कि हम केवल दूसरों की लिखी हुई पुस्तकें पढ़ लें, बल्कि खुद संसार-रूपी पुस्तक को पढ़ें। मुझे आशा है कि पत्थरों और पहाड़ों को पढ़ कर तुम थोड़े ही दिनों में उनका हाल जानना सीख जाओगी। सोचो, कितनी मजे की बात है। एक छोटा-सा रोड़ा जिसे तुम सड़क पर या पहाड़ के नीचे पड़ा हुआ देखती हो, शायद संसार की पुस्तक का छोटा-सा पृष्ठ हो, शायद उससे तुम्हें कोई नई बात मालूम हो जाय। शर्त यही है कि तुम्हें उसे पढ़ना आता हो। कोई जबान, उर्दू, हिंदी या अंग्रेजी, सीखने के लिए तुम्हें उसके अक्षर सीखने होते हैं। इसी तरह पहले तुम्हें प्रकृति के अक्षर पढ़ने पड़ेंगे, तभी तुम उसकी कहानी उसकी पत्थरों और चट्टानों की पुस्तक से पढ़ सकोगी। शायद अब भी तुम उसे थोड़ा-थोड़ा पढ़ना जानती हो। जब तुम कोई छोटा-सा गोल चमकीला रोड़ा देखती हो, तो क्या वह तुम्हें कुछ नहीं बताता? यह कैसे गोल, चिकना और चमकीला हो गया और उसके खुरदरे किनारे या कोने क्या हुए? अगर तुम किसी बड़ी चट्टान को तोड़ कर टुकड़े-टुकड़े कर डालो तो हर एक टुकड़ा खुरदरा और नोकीला होगा। यह गोल चिकने रोड़े की तरह बिल्कुल नहीं होता। फिर यह रोड़ा कैसे इतना चमकीला, चिकना और गोल हो गया? अगर तुम्हारी ऑंखें देखें और कान सुनें तो तुम उसी के मुँह से उसकी कहानी सुन सकती हो। वह तुमसे कहेगा कि एक समय, जिसे शायद बहुत दिन गुजरे हों, वह भी एक चट्टान का टुकड़ा था। ठीक उसी टुकड़े की तरह, उसमें किनारे और कोने थे, जिसे तुम बड़ी चट्टान से तोड़ती हो। शायद वह किसी पहाड़ के दामन में पड़ा रहा। तब पानी आया और उसे बहा कर छोटी घाटी तक ले गया। वहाँ से एक पहाड़ी नाले ने ढकेल कर उसे एक छोटे-से दरिया में पहुँचा दिया। इस छोटे से दरिया से वह बड़े दरिया में पहुँचा। इस बीच वह दरिया के पेंदे में लुढ़कता रहा, उसके किनारे घिस गए और वह चिकना और चमकदार हो गया। इस तरह वह कंकड़ बना जो तुम्हारे सामने है। किसी वजह से दरिया उसे छोड़ गया और तुम उसे पा गईं। अगर दरिया उसे और आगे ले जाता तो वह छोटा होते-होते अंत में बालू का एक जर्रा हो जाता और समुद्र के किनारे अपने भाइयों से जा मिलता, जहाँ एक सुंदर बालू का किनारा बन जाता, जिस पर छोटे-छोटे बच्चे खेलते और बालू के घरौंदे बनाते।
अगर एक छोटा-सा रोड़ा तुम्हें इतनी बातें बता सकता है, तो पहाड़ों और दूसरी चीजों से, जो हमारे चारों तरफ हैं, हमें और कितनी बातें मालूम हो सकती हैं।
अपने पहले पृष्ठ में मैंने तुम्हें बताया था कि हमें संसार की पुस्तक से ही दुनिया के शुरू का हाल मालूम हो सकता है। इस पुस्तक में चट्टान, पहाड़, घाटियॉं, नदियाँ, समुद्र, ज्वालामुखी और हर एक चीज, जो हम अपने चारों तरफ देखते हैं, शामिल हैं। यह पुस्तक हमेशा हमारे सामने खुली रहती है, लेकिन बहुत ही थोड़े आदमी इस पर ध्यान देते या इसे पढ़ने की कोशिश करते हैं। अगर हम इसे पढ़ना और समझना सीख लें, तो
अपने पहले पृष्ठ में मैंने तुम्हें बताया था कि हमें संसार की पुस्तक से ही दुनिया के शुरू का हाल मालूम हो सकता है। इस पुस्तक में चट्टान, पहाड़, घाटियॉं, नदियाँ, समुद्र, ज्वालामुखी और हर एक चीज, जो हम अपने चारों तरफ देखते हैं, शामिल हैं। यह पुस्तक हमेशा हमारे सामने खुली रहती है, लेकिन बहुत ही थोड़े आदमी इस पर ध्यान देते या इसे पढ़ने की कोशिश करते हैं। अगर हम इसे पढ़ना और समझना सीख लें, तो हमें इसमें कितनी ही मनोहर कहानियाँ मिल सकती हैं। इसके पत्थर के पृष्ठों में हम जो कहानियाँ पढ़ेंगे वे परियों की कहानियों से कहीं सुंदर होंगी।
इस तरह संसार की इस पुस्तक से हमें उस पुराने जमाने का हाल मालूम हो जाएगा जब कि हमारी दुनिया में कोई आदमी या जानवर न था। ज्यों-ज्यों हम पढ़ते जाएँगेगे हमें मालूम होगा कि पहले जानवर कैसे आए और उनकी तादाद कैसे बढ़ती गई। उनके बाद आदमी आए; लेकिन वे उन आदमियों की तरह न थे, जिन्हें हम आज देखते हैं। वे जंगली थे और जानवरों में और उनमें बहुत कम फर्क था। धीरे-धीरे उन्हें तजरबा हुआ और उनमें सोचने की ताकत आई। इसी ताकत ने उन्हें जानवरों से अलग कर दिया। यह असली ताकत थी जिसने उन्हें बड़े-से-बड़े और भयानक से भयानक जानवरों से अधिक बलवान बना दिया। तुम देखती हो कि एक छोटा-सा आदमी एक बड़े हाथी के सिर पर बैठ कर उससे जो चाहता है करा लेता है। हाथी बड़े डील-डौल का जानवर है, और उस महावत से कहीं अधिक बलवान है, जो उसकी गर्दन पर सवार है। लेकिन महावत में सोचने की ताकत है और इसी की बदौलत वह मालिक है और हाथी उसका नौकर। ज्यों-ज्यों आदमी में सोचने की ताकत बढ़ती गई, उसकी सूझ-बूझ भी बढ़ती गई। उसने बहुत-सी बातें सोच निकालीं। आग जलाना, पृथ्वी जोत कर खाने की चीजें पैदा करना, कपड़ा बनाना और पहनना, और रहने के लिए घर बनाना, ये सभी बातें उसे मालूम हो गईं। बहुत-से आदमी मिल कर एक साथ रहते थे और इस तरह पहले शहर बने। शहर बनने से पहले लोग जगह-जगह घूमते-फिरते थे और शायद किसी तरह के खेमों में रहते होंगे। तब तक उन्हें पृथ्वी से खाने की चीजें पैदा करने का तरीका नहीं मालूम था। न उनके पास चावल था, न गेहूँ जिससे रोटियाँ बनती हैं। न तो तरकारियाँ थीं और न दूसरी चीजें जो हम आज खाते हैं। शायद कुछ फल और बीज उन्हें खाने को मिल जाते हों मगर अधिकतर वे जानवरों को मार कर उनका माँस खाते थे।
ज्यों-ज्यों शहर बनते गए, लोग तरह-तरह की सुंदर कलाएं सीखते गए। उन्होंने लिखना भी सीखा। लेकिन बहुत दिनों तक लिखने का कागज न था, और लोग भोजपत्र या ताड़ के पत्तों पर लिखते थे। आज भी बाज पुस्तकालयों में तुम्हें समूची पुस्तकें मिलेंगी जो उसी पुराने जमाने में भोजपत्रों पर लिखी गई थीं। तब कागज बना और लिखने में आसानी हो गई। लेकिन छापेखाने न थे और आजकल की भाँति पुस्तकें हजारों की तादाद में न छप सकती थीं। कोई पुस्तक जब लिख ली जाती थी तो बड़ी मेहनत के साथ हाथ से उसकी नकल की जाती थी। ऐसी दशा में पुस्तकें बहुत न थीं। तुम किसी पुस्तकबेचनेवाले की दुकान पर जा कर चटपट पुस्तक न खरीद सकतीं। तुम्हें किसी से उसकी नकल करानी पड़ती और उसमें बहुत समय लगता। लेकिन उन दिनों लोगों के अक्षर बहुत सुंदर होते थे और आज भी पुस्तकालयों में ऐसी पुस्तकें मौजूद हैं, जो हाथ से बहुत सुंदर अक्षरों में लिखी गई थीं। हिंदुस्तान में खास कर संस्कृत, फारसी और उर्दू की पुस्तकें मिलती हैं। प्रायः नकल करनेवाले पृष्ठों के किनारों पर सुंदर बेल-बूटे बना दिया करते थे।
शहरों के बाद धीरे-धीरे देशों और जातियों की बुनियाद पड़ी। जो लोग एक मुल्क में आस-पास रहते थे उनका एक दूसरे से मेल-जोल हो जाना स्वाभाविक था। वे समझने लगे कि हम दूसरे मुल्कवालों से बढ़-चढ़ कर हैं और बेवकूफी से उनसे लड़ने लगे। उनकी समझ में यह बात न आई, और आज भी लोगों की समझ में नहीं आ रही कि लड़ने और एक-दूसरे की जान लेने से बढ़ कर बेवकूफी की बात और कोई नहीं हो सकती। इससे किसी को फायदा नहीं होता।
जिस जमाने में शहर और मुल्क बने, उसकी कहानी जानने के लिए पुरानी पुस्तकें कभी-कभी मिल जाती हैं। लेकिन ऐसी पुस्तकें बहुत नहीं हैं। हाँ, दूसरी चीजों से हमें मदद मिलती है। पुराने जमाने के राजे-महाराजे अपने समय का हाल पत्थर के टुकड़ों और खंभों पर लिखवा दिया करते थे। पुस्तकें बहुत दिन तक नहीं चल सकतीं। उनका कागज बिगड़ जाता है और उसे कीड़े खा जाते हैं। लेकिन पत्थर बहुत दिन चलता है। शायद तुम्हें याद होगा कि तुमने इलाहाबाद के किले में अशोक की बड़ी लाट देखी है। कई सौ वर्ष हुए अशोक हिंदुस्तान का एक बड़ा राजा था। उसने उस खंभे पर अपना एक आदेश खुदवा दिया है। अगर तुम लखनऊ के अजायबघर में जाओ, तो तुम्हें बहुत-से पत्थर के टुकड़े मिलेंगे जिन पर अक्षर खुदे हैं।
संसार के देशों का इतिहास पढ़ने लगोगी तो तुम्हें उन बड़े-बड़े कामों का हाल मालूम होगा जो चीन और मिस्रवालों ने किये थे। उस समय यूरोप के देशों में जंगली जातियाँ बसती थीं। तुम्हें हिंदुस्तान के उस शानदार जमाने का हाल भी मालूम होगा जब रामायण और महाभारत लिखे गए और हिंदुस्तान बलवान और धनवान देश था। आज हमारा मुल्क बहुत गरीब है और एक विदेशी जाति हमारे ऊपर राज्य कर रही है। हम अपने ही मुल्क में आजाद नहीं हैं और जो कुछ करना चाहें नहीं कर सकते। लेकिन यह हाल हमेशा नहीं था और अगर हम पूरी कोशिश करें तो शायद हमारा देश फिर आजाद हो जाए, जिससे हम गरीबों की दशा सुधार सकें और हिंदुस्तान में रहना उतना ही आरामदेह हो जाए, जितना कि आज यूरोप के कुछ देशों में है।
मैं अपने अगले पत्र में संसार की मनोहर कहानी शुरू से लिखना आरंभ करूँगा।
पिछले पत्र में मैं तुम्हें बता चुका हूँ कि बहुत दिनों तक पृथ्वी इतनी गर्म थी कि कोई जानदार चीज उस पर रह ही नहीं सकती थी। तुम पूछोगी कि पृथ्वी पर जानदार चीजों का आना कब शुरू हुआ और पहले कौन-कौन सी चीजें आईं। यह बड़े मजे का सवाल है, पर इसका जवाब देना आसान नहीं है। पहले यह देखो कि जान है क्या चीज। शायद तुम कहोगी कि आदमी और जानवर जानदार हैं। लेकिन पेड़ों और झाड़ियों, फूलों और सब्जियों को
पिछले पत्र में मैं तुम्हें बता चुका हूँ कि बहुत दिनों तक पृथ्वी इतनी गर्म थी कि कोई जानदार चीज उस पर रह ही नहीं सकती थी। तुम पूछोगी कि पृथ्वी पर जानदार चीजों का आना कब शुरू हुआ और पहले कौन-कौन सी चीजें आईं। यह बड़े मजे का सवाल है, पर इसका जवाब देना आसान नहीं है। पहले यह देखो कि जान है क्या चीज। शायद तुम कहोगी कि आदमी और जानवर जानदार हैं। लेकिन पेड़ों और झाड़ियों, फूलों और सब्जियों को क्या कहोगी? यह मानना पड़ेगा कि वे सब भी जानदार हैं। वे पैदा होते हैं, पानी पीते हैं, हवा में साँस लेते हैं और मर जाते हैं। वृक्ष और जानवर में खास फर्क यह है कि जानवर चलता-फिरता है, और वृक्ष हिल नहीं सकते। तुमको याद होगा कि मैंने लंदन के क्यू गार्डन में तुम्हें कुछ पौधे दिखाए थे। ये पौधे, जिन्हें आर्किड और पिचरक्व कहते हैं, सचमुच मक्खियाँ खा जाते हैं। इसी तरह कुछ जानवर भी ऐसे हैं, जो समुद्र के नीचे रहते हैं और चल-फिर नहीं सकते। स्पंज ऐसा ही जानवर है। कभी-कभी तो किसी चीज को देख कर यह बताना मुश्किल हो जाता है कि वह पौधा है या जानवर। जब तुम वनस्पतिशास्त्र (पेड़-पौधों की विद्या) या जीवशास्त्र (जिसमें जीव-जंतुओं का हाल लिखा होता है) पढ़ोगी तो तुम इन अजीब चीजों को देखोगी जो न जानवर हैं न पौधे। कुछ लोगों का खयाल है कि पत्थरों और चट्टानों में भी एक किस्म की जान है और उन्हें भी एक तरह का दर्द होता है; मगर हमको इसका पता नहीं चलता। शायद तुम्हें उन महाशय की याद होगी जो हमसे जेनेवा में मिलने आए थे उनका नाम है सर जगदीश बोस। उन्होंने परीक्षण करके साबित किया है कि पौधों में बहुत कुछ जान होती है। इनका खयाल है कि पत्थरों में भी कुछ जान होती है।
इससे तुम्हें मालूम हो गया होगा कि किसी चीज को जानदार या बेजान कहना कितना मुश्किल है। लेकिन इस वक्त हम पत्थरों को छोड़ देते हैं, सिर्फ जानवरों और पौधों पर ही विचार करते हैं। आज संसार में हजारों जानदार चीजे हैं। वे सभी किस्म की हैं। पुरुष हैं और औरतें हैं। और इनमें से कुछ लोग होशियार हैं और कुछ लोग बेवकूफ हैं। जानवर भी बहुत तरह के हैं और उनमें भी हाथी, बंदर या चींटी की तरह समझदार जानवर हैं और बहुत-से जानवर बिल्कुल बेसमझ भी हैं। मछलियाँ और समुद्र की बहुत-सी चीजें जानदारों में और भी नीचे दरजे की हैं। उनसे भी नीचा दरजा स्पंजों और मुरब्बे की शक्ल की मछलियों का है जो आधा पौधा और जानवर है।
अब हमको इस बात का पता लगाना है कि ये भिन्न-भिन्न प्रकार के जानवर एक साथ और एक वक्त पैदा हुए या एक-एक कर धीरे-धीरे। हमें यह कैसे मालूम हो। उस पुराने जमाने की लिखी हुई तो कोई पुस्तक है नहीं। लेकिन क्या संसार की पुस्तक से हमारा काम चल सकता है? हाँ, चल सकता है। पुरानी चट्टानों में जानवरों की हड्डियाँ मिलती हैं, इन्हें अंग्रेजी में फॉसिल या पथराई हुई हड्डी कहते हैं। इन हड्डियाँ से इस बात का पता चलता है कि उस चट्टान के बनने के बहुत पहले वह जानवर जरूर रहा होगा जिसकी हड्डियाँ मिली हैं। तुमने इस तरह की बहुत-सी छोटी और बड़ी हड्डियाँ लंदन के साउथ कैंसिंगटन के अजायबघर में देखी थीं।
जब कोई जानवर मर जाता है तो उसका नर्म और माँसवाला भाग तो फौरन सड़ जाता है, लेकिन उसकी हड्डियाँ बहुत दिनों तक बनी रहती हैं। यही हड्डियाँ उस पुराने जमाने के जानवरों का कुछ हाल हमें बताती हैं। लेकिन अगर कोई जानवर बिना हड्डी का ही हो, जैसे मुरब्बे की शक्ल वाली मछलियाँ होती हैं तो उसके मर जाने पर कुछ भी बाकी न रहेगा।
जब हम चट्टानों को गौर से देखते हैं और बहुत-सी पुरानी हड्डियों को जमा कर लेते हैं तो हमें मालूम हो जाता है कि भिन्न-भिन्न समय में भिन्न-भिन्न प्रकार के जानवर रहते थे। सबके सब एकबारगी कहीं से कूद कर नहीं आ गए। सबसे पहले छिलकेदार जानवर पैदा हुए जैसे घोंघे। समुद्र के किनारे तुम जो सुंदर घोंघे बटोरती हो वे उन जानवरों के छिलके हैं जो मर चुके हैं। उसके बाद अधिक ऊँचे दरजे के जानवर पैदा हुए, जिनमें साँप और हाथी जैसे बड़े जानवर थे, और वे चिड़ियाँ और जानवर भी, जो आज तक मौजूद हैं। सबके पीछे आदमियों की हड्डियाँ मिलती हैं। इससे यह पता चलता है कि जानवरों के पैदा होने में भी एक क्रम था। पहले नीचे दरजे के जानवर आए, तब अधिक ऊँचे दरजे के जानवर पैदा हुए और ज्यों-ज्यों दिन गुजरते गए वे और भी बारीक होते गए और आखिर में सबसे ऊँचे दरजे का जानवर यानी आदमी पैदा हुआ। सीधे-सादे स्पंज और घोंघे में कैसे इतनी तब्दीलियाँ हुईं और कैसे वे इतने ऊँचे दरजे पर पहुँच गए; यही बड़ी मजेदार कहानी है और किसी दिन मैं उसका हाल बताऊँगा। इस वक्त हम सिर्फ उन जानवरों का जिक्र कर रहे हैं जो पहले पैदा हुए।
पृथ्वी के ठंडे हो जाने के बाद शायद पहली जानदार चीज वह नर्म मुरब्बे की-सी चीज थी जिस पर न कोई खोल था न कोई हड्डी थी वह समुद्र में रहती थी। हमारे पास उनकी हड्डियाँ नहीं हैं क्योंकि उनके हड्डियाँ थी ही नहीं, इसलिए हमें कुछ न कुछ अटकल से काम लेना पड़ता है। आज भी समुद्र में बहुत-सी मुरब्बे की सी चीजे हैं। वे गोल होती हैं लेकिन उनकी सूरत बराबर बदलती रहती है क्योंकि न उनमें कोई हड्डी है न खोल। उनकी सूरत कुछ इस तरह की होती है।
तुम देखती हो कि बीच में एक दाग है। इसे बीज कहते हैं और यह एक तरह से उसका दिल है। यह जानवर, या इन्हें जो चाहो कहो, एक अजीब तरीके से कट कर एक के दो हो जाते हैं। पहले वे एक जगह पतले होने लगते हैं और इसी तरह पतले होते चले जाते हैं, यहाँ तक कि टूट कर दो मुरब्बे की-सी चीजें बन जाते हैं और दोनों ही शक्ल असली लोथड़े की सी होती है।
बीज या दिल के भी दो टुकड़े हो जाते हैं और दोनों लोथड़ों के हिस्से में इसका एक-एक टुकड़ा आ जाता है। इस तरह ये जानवर टूटते और बढ़ते चले जाते हैं।
इसी तरह की कोई चीज सबसे पहले हमारे संसार में आई होगी। जानदार चीजों का कितना सीधा-सादा और तुच्छ रूप था! सारी दुनिया में इससे अच्छी या ऊँचे दरजे की चीज उस वक्त न थी। असली जानवर पैदा न हुए थे और आदमी के पैदा होने में लाखों वर्ष की देर थी।
इन लोथड़ों के बाद समुद्र की घास और घोंघे, केकड़े और कीड़े पैदा हुए। तब मछलियाँ आईं। इनके बारे में हमें बहुत-सी बातें मालूम होती हैं क्योंकि उन पर कड़े खोल या हड्डियाँ थीं और इसे वे हमारे लिए छोड़ गई हैं ताकि उनके मरने के बहुत दिनों के बाद हम उन पर गौर कर सकें। यह घोंघे समुद्र के किनारे पृथ्वी पर पड़े रह गए। इन पर बालू और ताजी मिट्टी जमती गई और ये बहुत हिफाजत से पड़े रहे। नीचे की मिट्टी, ऊपर की बालू और मिट्टी के बोझ और दबाव से कड़ी होती गई। यहाँ तक कि वह पत्थर जैसी हो गई। इस तरह समुद्र के नीचे चट्टानें बन गईं। किसी भूचाल के आ जाने से या और किसी सबब से ये चट्टानें समुद्र के नीचे से निकल आईं और सूखी पृथ्वी बन गईं। तब इस सूखी चट्टान को नदियाँ और मेह बहा ले गए। और जो हड्डियाँ उनमें लाखों बरसों से छिपी थीं बाहर निकल आईं। इस तरह हमें ये घोंघे या हड्डियाँ मिल गईं जिनसे हमें मालूम हुआ कि हमारी पृथ्वी आदमी के पैदा होने के पहले कैसी थी।
दूसरी चिट्ठी में हम इस बात पर विचार करेंगे कि ये नीचे दरजे के जानवर कैसे बढ़ते-बढ़ते आजकल की सी सूरत के हो गए।
तुम जानती हो कि पृथ्वी सूरज के चारों तरफ घूमती है और चाँद पृथ्वी के चारों तरफ घूमता है। शायद तुम्हें यह भी याद है कि ऐसे और भी कई गोले हैं, जो पृथ्वी की तरह सूरज का चक्कर लगाते हैं। ये सब, हमारी पृथ्वी को मिला कर, सूरज के ग्रह कहलाते हैं। चाँद पृथ्वी का उपग्रह कहलाता है; इसलिए कि वह पृथ्वी के ही आसपास रहता है। दूसरे ग्रहों के भी अपने-अपने उपग्रह हैं। सूरज, उसके ग्रह और ग्रहों के उपग्रह
तुम जानती हो कि पृथ्वी सूरज के चारों तरफ घूमती है और चाँद पृथ्वी के चारों तरफ घूमता है। शायद तुम्हें यह भी याद है कि ऐसे और भी कई गोले हैं, जो पृथ्वी की तरह सूरज का चक्कर लगाते हैं। ये सब, हमारी पृथ्वी को मिला कर, सूरज के ग्रह कहलाते हैं। चाँद पृथ्वी का उपग्रह कहलाता है; इसलिए कि वह पृथ्वी के ही आसपास रहता है। दूसरे ग्रहों के भी अपने-अपने उपग्रह हैं। सूरज, उसके ग्रह और ग्रहों के उपग्रह मिल कर मानो एक सुखी परिवार बन जाता है। इस परिवार को सौर जगत कहते हैं। सौर का अर्थ है सूरज का। सूरज ही सब ग्रहों और उपग्रहों का बाबा है। इसीलिए इस परिवार को सौर-जगत कहते हैं।
रात को तुम आसमान में हजारों सितारे देखती हो। इनमें से थोड़े-से ही ग्रह हैं और बाकी सितारे हैं। क्या तुम बता सकती हो कि ग्रह और तारे में क्या फर्क है? ग्रह हमारी पृथ्वी की तरह सितारों से बहुत छोटे होते हैं लेकिन आसमान में वे बड़े नजर आते हैं, क्योंकि पृथ्वी से उनका फासला कम है। ठीक ऐसा ही समझो जैसे चाँद, जो बिल्कुल बच्चे की तरह है, हमारे नजदीक होने की वजह से इतना बड़ा मालूम होता है। लेकिन सितारों और ग्रहों के पहचानने का असली तरीका यह है कि वे जगमगाते हैं या नहीं। सितारे जगमगाते हैं, ग्रह नहीं जगमगाते। इसका सबब यह है कि ग्रह सूर्य की रोशनी से चमकते हैं। चाँद और ग्रहों में जो चमक हम देखते हैं वह धूप की है। असली सितारे बिल्कुल सूरज की तरह हैं, वे बहुत गर्म जलते हुए गोले हैं जो आप ही आप चमकते हैं। दरअसल, सूरज खुद एक सितारा है। हमें यह बड़ा आग का गोला-सा मालूम होता है, इसलिए कि पृथ्वी से उसकी दूरी और सितारों से कम है।
इससे अब तुम्हें मालूम हो गया कि हमारी पृथ्वी भी सूरज के परिवार में सौर जगत में है। हम समझते हैं कि पृथ्वी बहुत बड़ी है और हमारे जैसी छोटी-सी चीज को देखते हुए वह है भी बहुत बड़ी। अगर किसी तेज गाड़ी या जहाज पर बैठो तो इसके एक हिस्से से दूसरे हिस्से तक जाने में हफ्तों और महीनों लग जाते हैं। लेकिन हमें चाहे यह कितनी ही बड़ी दिखाई दे, असल में यह धूल के एक कण की तरह हवा में लटकी हुई है। सूरज पृथ्वी से करोड़ों मील दूर है और दूसरे सितारे इससे भी अधिक दूर हैं।
ज्योतिषी या वे लोग जो सितारों के बारे में बहुत-सी बातें जानते हैं हमें बताते हैं कि बहुत दिन पहले हमारी पृथ्वी और सारे ग्रह सूर्य ही में मिले हुए थे। आजकल की तरह उस समय भी सूरज जलती हुई धातु का निहायत गर्म गोला था। किसी वजह से सूरज के छोटे-छोटे टुकड़े उससे टूट कर हवा में निकल पड़े। लेकिन वे अपने पिता सूर्य से बिल्कुल अलग न हो सके। वे इस तरह सूर्य के इर्द-गिर्द चक्कर लगाने लगे, जैसे उनको किसी ने रस्सी से बाँध कर रखा हो। यह विचित्र शक्ति जिसकी मैंने रस्सी से मिवर्ष दी है, एक ऐसी ताकत है जो छोटी चीजों को बड़ी चीजों की तरफ खींचती है। यह वही ताकत है, जो वजनदार चीजों को पृथ्वी पर गिरा देती है। हमारे पास पृथ्वी ही सबसे भारी चीज है, इसी से वह हर एक चीज को अपनी तरफ खींच लेती है।
इस तरह हमारी पृथ्वी भी सूरज से निकल भागी थी। उस जमाने में यह बहुत गर्म रही होगी; इसके चारों तरफ की हवा भी बहुत गर्म रही होगी लेकिन सूरज से बहुत ही छोटी होने के कारण वह जल्द ठंडी होने लगी। सूरज की गर्मी भी दिन-दिन कम होती जा रही है लेकिन उसे बिल्कुल ठंडे हो जाने में लाखों वर्ष लगेंगे। पृथ्वी के ठंडे होने में बहुत थोड़े दिन लगे। जब यह गर्म थी तब इस पर कोई जानदार चीज जैसे आदमी, जानवर, पौधा या पेड़ न रह सकते थे। सब चीजें जल जातीं।
जैसे सूरज का एक टुकड़ा टूट कर पृथ्वी हो गया इसी तरह पृथ्वी का एक टुकड़ा टूट कर निकल भागा और चाँद हो गया। बहुत-से लोगों का खयाल है कि चाँद के निकलने से जो गड्ढा हो गया वह अमरीका और जापान के बीच का प्रशांत सागर है। मगर पृथ्वी को ठंडे होने में भी बहुत दिन लग गए। धीरे-धीरे पृथ्वी की ऊपरी तह तो अधिक ठंडी हो गई लेकिन उसका भीतरी हिस्सा गर्म बना रहा। अब भी अगर तुम किसी कोयले की खान में घुसो, तो ज्यों-ज्यों तुम नीचे उतरोगी गर्मी बढ़ती जायगी। शायद अगर तुम बहुत दूर नीचे चली जाओ तो तुम्हें पृथ्वी अंगारे की तरह मिलेगी। चाँद भी ठंडा होने लगा। वह पृथ्वी से भी अधिक छोटा था इसलिए उसके ठंडे होने में पृथ्वी से भी कम दिन लगे! तुम्हें उसकी ठंडक कितनी प्यारी मालूम होती है। उसे ठंडा चाँद ही कहते हैं। शायद वह बर्फ क़े पहाड़ों और बर्फ से ढके हुए मैदानों से भरा हुआ है।
जब पृथ्वी ठंडी हो गई तो हवा में जितनी भाप थी वह जम कर पानी बन गई और शायद मेंघ बन कर वर्ष पड़ी। उस जमाने में बहुत ही अधिक पानी बरसा होगा। यह सब पानी पृथ्वी के बड़े-बड़े गङ्ढों में भर गया और इस तरह बड़े-बड़े समुद्र और सागर बन गए।
ज्यों-ज्यों पृथ्वी ठंडी होती गई और समुद्र भी ठंडे होते गए त्यों-त्यों दोनों जानदार चीजों के रहने लायक होते गए।
दूसरे पत्र में मैं तुम्हें जानदार चीजों के पैदा होने का हाल लिखूँगा।
हम बता चुके हैं कि शुरू में छोटे-छोटे समुद्री जानवर और पानी में होनेवाले पौधे दुनिया की जानदार चीजों में थे। वे सिर्फ पानी में ही रह सकते थे और अगर किसी वजह से बाहर निकल आते और उन्हें पानी न मिलता तो जरूर मर जाते होंगे। जैसे आज भी मछलियाँ सूखें में आने से मर जाती हैं। लेकिन उस जमाने में आजकल से कहीं अधिक समुद्र और दलदल रहे होंगे। वे मछलियाँ और दूसरे पानी के जानवर जिनकी खाल जरा चिमड़ी
हम बता चुके हैं कि शुरू में छोटे-छोटे समुद्री जानवर और पानी में होनेवाले पौधे दुनिया की जानदार चीजों में थे। वे सिर्फ पानी में ही रह सकते थे और अगर किसी वजह से बाहर निकल आते और उन्हें पानी न मिलता तो जरूर मर जाते होंगे। जैसे आज भी मछलियाँ सूखें में आने से मर जाती हैं। लेकिन उस जमाने में आजकल से कहीं अधिक समुद्र और दलदल रहे होंगे। वे मछलियाँ और दूसरे पानी के जानवर जिनकी खाल जरा चिमड़ी थी, सूखी पृथ्वी पर दूसरों से कुछ अधिक देर तक जी सकते होंगे। क्योंकि उन्हें सूखने में देर लगती थी। इसलिए नर्म मछलियाँ और उन्हीं की तरह के दूसरे जानवर धीरे-धीरे कम होते गए क्योंकि सूखी पृथ्वी पर जिंदा रहना उनके लिए मुश्किल था और जिनकी खाल अधिक सख्त थी वे बढ़ते गए। सोचो, कितनी अजीब बात है! इसका यह मतलब है कि जानवर धीरे-धीरे अपने को आस-पास की चीजों के अनुकूल बना लेते हैं। तुमने लंदन के अजायबघर में देखा था कि जाड़ों में और ठंडे देशों में जहाँ बहुतायत से बर्फ गिरती है चिड़ियाँ और जानवर बर्फ की तरह सफेद हो जाते हैं। गरम देशों में जहाँ हरियाली और वृक्ष बहुत होते हैं वे हरे या किसी दूसरे चमकदार रंग के हो जाते हैं। इसका यह मतलब है कि वे अपने को उसी तरह का बना लेते हैं जैसे उनके आसपास की चीजें हों। उनका रंग इसलिए बदल जाता है कि वे अपने को दुश्मनों से बचा सकें, क्योंकि अगर उनका रंग आस-पास की चीजों से मिल जाए तो वे आसानी से दिखाई न देंगे। सर्द मुल्कों में उनकी खाल पर बाल निकल आते हैं जिससे वे गर्म रह सकें। इसीलिए चीते का रंग पीला और धारीदार होता है, उस धूप की तरह, जो दरख्तों से हो कर जंगल में आती है। वह घने जंगल में मुश्किल से दिखाई देता है।
इस अजीब बात का जानना बहुत जरूरी है। जानवर अपने रंग-ढंग को आसपास की चीजों से मिला देते हैं। यह बात नहीं है कि जानवर अपने को बदलने की कोशिश करते हों; लेकिन जो अपने को बदल कर आसपास की चीजों से मिला देते हैं उनको जिंदा रहना अधिक आसान हो जाता है। उनकी तादाद बढ़ने लगती है, दूसरों की नहीं बढ़ती। इससे बहुत-सी बातें समझ में आ जाती हैं। इससे यह मालूम हो जाता है कि नीचे दरजे के जानवर धीरे-धीरे ऊँचे दरजों में पहुँचते हैं और मुमकिन है कि लाखों बरसों के बाद आदमी हो जाते हैं। हम ये तब्दीलियाँ, जो हमारे चारों तरफ होती रहती हैं, देख नहीं सकते, क्योंकि वे बहुत धीरे-धीरे होती हैं और हमारी जिंदगी कम होती है। लेकिन प्रकृति अपना काम करती रहती है और चीजों को बदलती और सुधारती रहती है। वह न तो कभी रुकती है और न आराम करती है।
तुम्हें याद है कि दुनिया धीरे-धीरे ठंडी हो रही थी और इसका पानी सूखता जाता था। जब यह अधिक ठंडी हो गई तो जलवायु बदल गई और उसके साथ ही बहुत-सी बातें बदल गईं। ज्यों-ज्यों दुनिया बदलती गई जानवर भी बदलते गए और नई-नई किस्म के जानवर पैदा होते गए। पहले नीचे दरजे के दरियाई जानवर पैदा हुए, फिर अधिक ऊँचे दरजे के। इसके बाद जब सूखी पृथ्वी अधिक हो गई तो ऐसे जानवर पैदा हुए जो पानी और पृथ्वी दोनों ही पर रह सकते हैं जैसे, मगर या मेढक। इसके बाद वे जानवर पैदा हुए जो सिर्फ पृथ्वी पर रह सकते हैं और तब हवा में उड़ने वाली चिड़ियाँ आईं।
मैंने मेढक का जिक्र किया है। इस अजीब जानवर की जिंदगी से बड़ी मजे की बातें मालूम होती हैं। साफ समझ में आ जाता है कि दरियाई जानवर बदलते-बदलते क्योंकर पृथ्वी के जानवर बन गए। मेढक पहले मछली होता है लेकिन बाद में वह खुश्की का जानवर हो जाता है और दूसरे खुश्की के जानवरों की तरह फेफड़े से सँस लेता है। उस पुराने जमाने में जब खुश्की के जानवर पैदा हुए बड़े-बड़े जंगल थे। पृथ्वी सारी की सारी झावर रही होगी, उस पर घने जंगल होंगे। आगे चल कर ये चट्टान और मिट्टी के बोझ से ऐसे दब गए कि वे धीरे-धीरे कोयला बन गए। तुम्हें मालूम है, कोयला गहरी खानों से निकलता है, ये खानें असल में पुराने जमाने के जंगल हैं।
शुरू-शुरू में पृथ्वी के जानवरों में बड़े-बड़े साँप, छिपकलियाँ और घड़ियाल थे। इनमें से बाज सौ फुट लंबे थे। सौ फुट लंबे साँप या छिपकली का जरा ध्यान तो करो! तुम्हें याद होगा कि तुमने इन जानवरों की हड्डियाँ लंदन के अजायबघर में देखी थीं।
इसके बाद वे जानवर पैदा हुए जो कुछ-कुछ हाल के जानवरों से मिलते थे। ये अपने बच्चों को दूध पिलाते थे। पहले वे भी आजकल के जानवरों से बहुत बड़े होते थे। जो जानवर आदमी से बहुत मिलता-जुलता है वह बंदर या बनमानुस है। इससे लोग खयाल करते हैं कि आदमी बनमानुस की नस्ल है। इसका यह मतलब है कि जैसे और जानवरों ने अपने को आसपास की चीजों के अनुकूल बना लिया और तरक्की करते गए इसी तरह आदमी भी पहले एक ऊँची किस्म का बनमानुस था। यह सच है कि यह तरक्की करता गया या यों कहो कि प्रकृति उसे सुधारती रही। पर आज उसके घमंड का ठिकाना नहीं। यह खयाल करता है कि और जानवरों से उसका मुकाबला ही क्या। लेकिन हमें याद रखना चाहिए कि हम बंदरों और बनमानुसों के भाई-बंद हैं और आज भी शायद हम में से बहुतों का स्वभाव बंदरों ही जैसा है।
मैंने तुम्हें पिछले पत्र में बताया था कि पहले दुनिया में बहुत नीचे दरजे के जानवर पैदा हुए और धीरे-धीरे तरक्की करते हुए लाखों वर्ष में उस सूरत में आए जो हम आज देखते हैं। हमें एक बड़ी दिलचस्प और जरूरी बात यह भी मालूम हुई कि जानदार हमेशा अपने को आसपास की चीजों से मिलाने की कोशिश करते गए। इस कोशिश में उनमें नई आदतें पैदा होती गईं और वे अधिक ऊँचे दरजे के जानवर होते गए। हमें यह तब्दीली या
मैंने तुम्हें पिछले पत्र में बताया था कि पहले दुनिया में बहुत नीचे दरजे के जानवर पैदा हुए और धीरे-धीरे तरक्की करते हुए लाखों वर्ष में उस सूरत में आए जो हम आज देखते हैं। हमें एक बड़ी दिलचस्प और जरूरी बात यह भी मालूम हुई कि जानदार हमेशा अपने को आसपास की चीजों से मिलाने की कोशिश करते गए। इस कोशिश में उनमें नई आदतें पैदा होती गईं और वे अधिक ऊँचे दरजे के जानवर होते गए। हमें यह तब्दीली या तरक्की कई तरह दिखाई देती है। इसकी मिवर्ष यह है कि शुरू-शुरू के जानवरों में हड्डियाँ न थीं लेकिन हड्डियों के बगैर वे बहुत दिनों तक जीवित न रह सकते थे इसलिए उनमें हड्डियाँ पैदा हो गईं। सबसे पहले रीढ़ की हड्डी पैदा हुई। इस तरह दो किस्म के जानवर हो गए हड्डीवाले और बेहड्डीवाले। जिन आदमियों या जानवरों को तुम देखती हो वे सब हड्डीवाले हैं!
एक और मिवर्ष लो। नीचे दरजे के जानवरों में मछलियाँ अंडे दे कर उन्हें छोड़ देती हैं। वे एक साथ हजारों अंडे देती हैं लेकिन उनकी बिल्कुल परवाह नहीं करतीं। माँ बच्चों की बिल्कुल खबर नहीं लेती। वह अंडों को छोड़ देती है और उनके पास कभी नहीं आती। इन अंडों की हिफाजत तो कोई करता नहीं, इसलिए अधिकतर मर जाते हैं। बहुत थोड़े से अंडों से मछलियाँ निकलती हैं। कितनी जानें बरबाद जाती हैं! लेकिन ऊँचे दरजे के जानवरों को देखो तो मालूम होगा कि उनके अंडे या बच्चे कम होते हैं लेकिन वे उनकी खूब हिफाजत करते हैं। मुर्गी भी अंडे देती है लेकिन वह उन पर बैठती है और उन्हें सेती है। जब बच्चे निकल आते हैं तो वह कई दिन तक उन्हें चुगाती है। जब बच्चे बड़े हो जाते हैं तब माँ उनकी फिक्र छोड़ देती है।
इन जानवरों में और उन जानवरों में जो बच्चे को दूध पिलाते हैं बड़ा फर्क है। यह जानवर अंडे नहीं देते। माँ अंडे को अपने अंदर लिए रहती है और पूरे तौर पर बने हुए बच्चे जनती है। जैसे कुत्ता, बिल्ली या खरगोश। इसके बाद माँ अपने बच्चे को दूध पिलाती है, लेकिन इन जानवरों में भी बहुत-से बच्चे बरबाद हो जाते हैं। खरगोश के कई-कई महीनों के बाद बहुत-से बच्चे पैदा होते हैं लेकिन इनमें से अधिकतर मर जाते हैं। लेकिन ऊँचे दरजे के जानवर एक ही बच्चा देते हैं और बच्चे को अच्छी तरह पालते-पोसते हैं जैसे हाथी।
अब तुमको यह भी मालूम हो गया कि जानवर ज्यों-ज्यों तरक्की करते हैं वे अंडे नहीं देते बल्कि अपनी सूरत के पूरे बने हुए बच्चे जानते हैं, जो सिर्फ कुछ छोटे होते हैं। ऊँचे दरजे के जानवर आम तौर से एक बार में एक ही बच्चा देते हैं। तुमको यह भी मालूम होगा कि ऊँचे दरजे के जानवरों को अपने बच्चों से थोड़ा-बहुत प्रेम होता है। आदमी सबसे ऊँचे दरजे का जानवर है, इसलिए माँ और बाप अपने बच्चों को बहुत प्यार करते और उनकी हिफाजत करते हैं।
इससे यह मालूम होता है कि आदमी जरूर नीचे दरजे के जानवरों से पैदा हुआ होगा। शायद शुरू के आदमी आजकल के से आदमियों की तरह थे ही नहीं। वे आधे बनमानुस और आधे आदमी रहे होंगे और बंदरों की तरह रहते होंगे। तुम्हें याद है कि जर्मनी के हाइडलबर्ग में तुम हम लोगों के साथ एक प्रोफेसर से मिलने गई थीं? उन्होंने एक अजायबखाना दिखाया था जिसमें पुरानी हड्डियाँ भरी हुई थीं, विशेषकर एक पुरानी खोपड़ी जिसे वह संदूक में रखे हुए थे। खयाल किया जाता है कि यह शुरू-शुरू के आदमी की खोपड़ी होगी। हम अब उसे हाइडलबर्ग का आदमी कहते हैं, सिर्फ इसलिए कि खोपड़ी हाइडलबर्ग के पास गड़ी हुई मिली थी। यह तो तुम जानती ही हो कि उस जमाने में न हाइडलबर्ग का पता था न किसी दूसरे शहर का।
उस पुराने जमाने में, जब कि आदमी इधर-उधर घूमते फिरते थे, बड़ी सख्त सरदी पड़ती थी इसीलिए उसे बर्फ का जमाना कहते हैं। बर्फ के बड़े-बड़े पहाड़ जैसे आज-कल उत्तरी ध्रुव के पास हैं, इंग्लैंड और जर्मनी तक बहते चले जाते थे। आदमियों का रहना बहुत मुश्किल होता होगा, और उन्हें बड़ी तकलीफ से दिन काटने पड़ते होंगे। वे वहीं रह सकते होंगे जहाँ बर्फ के पहाड़ न हों। वैज्ञानिक लोगों ने लिखा है कि उस जमाने में भूमध्य सागर न था बल्कि वहाँ एक या दो झीलें थीं। लाल सागर भी न था। यह सब जमीन थी। शायद हिंदुस्तान का बड़ा हिस्सा टापू था। और हमारे सूबे पंजाब का कुछ हिस्सा समुद्र था। खयाल करो कि सारा दक्षिणी हिंदुस्तान और मध्य हिंदुस्तान एक बहुत बड़ा द्वीप है और हिमालय और उसके बीच में समु्द्र लहरें मार रहा है। तब शायद तुम्हें जहाज में बैठ कर मसूरी जाना पड़ता।
शुरू-शुरू में जब आदमी पैदा हुआ तो इसके चारों तरफ बड़े-बड़े जानवर रहे होंगे और उसे उनसे बराबर खटका लगा रहता होगा। आज आदमी दुनिया का मालिक है और जानवरों से जो काम चाहता है करा लेता है। बाजों को वह पाल लेता है जैसे घोड़ा, गाय, हाथी, कुत्ता, बिल्ली वगैरह। बाजों को वह खाता है और बाजों का वह दिल बहलाने के लिए शिकार करता है, जैसे शेर और चीता। लेकिन उस जमाने में वह मालिक न था, बल्कि बड़े-बड़े जानवर उसी का शिकार करते थे और वह उनसे जान बचाता फिरता था। मगर धीरे-धीरे उसने तरक्की की और दिन-दिन अधिक ताकतवर होता गया यहाँ तक कि वह सब जानवरों से मजबूत हो गया। यह बात उसमें कैसे पैदा हुई? बदन की ताकत से नहीं क्योंकि हाथी उससे कहीं अधिक मजबूत होता है। बुध्दि और दिमाग की ताकत से उसमें यह बात पैदा हुई।
आदमी की अक्ल कैसे धीरे-धीरे बढ़ती गई, इसका शुरू से आज तक का पता हम लगा सकते हैं। सच तो यह है कि बुध्दि ही आदमियों को और जानवरों से अलग कर देती है। बिना समझ के आदमी और जानवर में कोई फर्क नहीं है।
पहली चीज, जिसका आदमी ने पता लगाया वह शायद आग थी। आजकल हम दियासलाई से आग जलाते हैं। लेकिन दियासलाइयाँ तो अभी हाल में बनी हैं। पुराने जमाने में आग बनाने का यह तरीका था कि दो चकमक पत्थरों को रगड़ते थे यहाँ तक कि चिनगारी निकल आती थी और इस चिनगारी से सूखी घास या किसी दूसरी सूखी चीज में आग लग जाती थी। जंगलों में कभी-कभी पत्थरों की रगड़ या किसी दूसरी सूखी चीज की रगड़ से आप ही आग लग जाती है। जानवरों में इतनी अक्ल कहाँ थी कि इससे कोई मतलब की बात सोचते। लेकिन आदमी अधिक होशियार था। उसने आग के फायदे देखे। यह जाड़ों में उसे गर्म रखती थी और बड़े-बड़े जानवरों को, जो उसके दुश्मन थे, भगा देती थी। इसलिए जब कभी आग लग जाती थी तो पुरुष और महिला उसमें सूखी पत्तियाँ फेंक-फेंक कर उसे जलाए रखने की कोशिश करते होंगे। धीरे-धीरे उन्हें मालूम हो गया कि वे चकमक पत्थरों को रगड़ कर खुद आग पैदा कर सकते हैं। उसके लिए यह बड़े मार्के की बात थी, क्योंकि इसने उन्हें दूसरें जानवरों से ताकतवर बना दिया। आदमी को दुनिया के मालिक बनने का रास्ता मिल गया।
मैंने अपने पिछले पत्र में लिखा था कि आदमी और जानवर में सिर्फ बुद्धि का फर्क है। बुद्धि ने आदमी को उन बड़े-बड़े जानवरों से अधिक चालाक और मजबूत बना दिया जो मामूली तौर पर उसे नष्ट कर डालते। ज्यों-ज्यों आदमी की अक्ल बढ़ती गई वह अधिक बलवान होता गया। शुरू में आदमी के पास जानवरों से मुकाबला करने के लिए कोई खास हथियार न थे। वह उन पर सिर्फ पत्थर फेंक सकता था। इसके बाद उसने पत्थर की
मैंने अपने पिछले पत्र में लिखा था कि आदमी और जानवर में सिर्फ बुद्धि का फर्क है। बुद्धि ने आदमी को उन बड़े-बड़े जानवरों से अधिक चालाक और मजबूत बना दिया जो मामूली तौर पर उसे नष्ट कर डालते। ज्यों-ज्यों आदमी की अक्ल बढ़ती गई वह अधिक बलवान होता गया। शुरू में आदमी के पास जानवरों से मुकाबला करने के लिए कोई खास हथियार न थे। वह उन पर सिर्फ पत्थर फेंक सकता था। इसके बाद उसने पत्थर की कुल्हाड़ियाँ और भाले और बहुत-सी दूसरी चीजें भी बनाईं जिनमें पत्थर की सूई भी थी। हमने इन पत्थरों के हथियारों को साउथ कैंसिंगटन और जेनेवा के अजायबघरों में देखा था।
धीरे-धीरे बर्फ का जमाना खत्म हो गया जिसका मैंने अपने पिछले पत्र में जिक्र किया है। बर्फ के पहाड़ मध्य-एशिया और यूरोप से गायब हो गए। ज्यों-ज्यों गरमी बढ़ती गई आदमी फैलते गए।
उस जमाने में न तो मकान थे और न कोई दूसरी इमारत थी। लोग गुफाओं में रहते थे। खेती करना किसी को न आता था। लोग जंगली फल खाते थे, या जानवरों का शिकार करके माँस खा कर रहते थे। रोटी और भात उन्हें कहाँ मयस्सर होता क्योंकि उन्हें खेती करनी आती ही न थी। वे पकाना भी नहीं जानते थे; हाँ, शायद माँस को आग में गर्म कर लेते हों। उनके पास पकाने के बर्तन, जैसे कढ़ाई और पतीली भी न थे।
एक बात बड़ी अजीब है। इन जंगली आदमियों को तस्वीर खींचना आता था। यह सच है कि उनके पास कागज, कलम, पेंसिल या ब्रश न थे। उनके पास सिर्फ पत्थर की सुइयाँ और नोकदार औजार थे। इन्हीं से वे गुफाओं की दीवारों पर जानवरों की तस्वीरें बनाया करते थे। उनके बाज-बाज खाके खासे अच्छे हैं मगर वे सब इकरुखे हैं। तुम्हें मालूम है कि इकरुखी तस्वीर खींचना आसान है और बच्चे इसी तरह की तस्वीरें खींचा करते हैं। गुफाओं में अँधेरा होता था इसलिए मुमकिन है कि वे चिराग जलाते हों।
जिन आदमियों का हमने ऊपर जिक्र किया है वे पाषाण या पत्थर-युग के आदमी कहलाते हैं। उस जमाने को पत्थर का युग इसलिए कहते हैं कि आदमी अपने सभी औजार पत्थर के बनाते थे। धातुओं को काम में लाना वे न जानते थे। आजकल हमारी चीजें अकसर धातुओं से बनती हैं, विशेषकर लोहे से। लेकिन उस जमाने में किसी को लोहे या काँसे का पता न था। इसलिए पत्थर काम में लाया जाता था, हालांकि उससे कोई काम करना बहुत मुश्किल था।
पाषाण युग के खत्म होने के पहले ही दुनिया की आबोहवा बदल गई और उसमें गर्मी आ गई। बर्फ के पहाड़ अब उत्तरी सागर तक ही रहते थे और मध्यएशिया और यूरोप में बड़े-बड़े जंगल पैदा हो गए। इन्हीं जंगलों में आदमियों की एक नई जाति रहने लगी। ये लोग बहुत-सी बातों में पत्थर के आदमियों से अधिक होशियार थे। लेकिन वे भी पत्थर के ही औजार बनाते थे। ये लोग भी पत्थर ही के युग के थे; मगर वह पिछला पत्थर का युग था, इसलिए वे नए पत्थर के युग के आदमी कहलाते थे।
गौर से देखने से मालूम होता है कि नए पत्थर युग के आदमियों ने बड़ी तरक्की कर ली थी। आदमी की अक्ल और जानवरों के मुकाबले में उसे तेजी से बढ़ाए लिये जा रही है। इन्हीं नए पाषाण-युग के आदमियों ने एक बहुत बड़ी चीज निकाली। यह खेती करने का तरीका था। उन्होंने खेतों को जोत कर खाने की चीजें पैदा करना शुरू कर दिया। उनके लिए यह बहुत बड़ी बात थी। अब उन्हें आसानी से खाना मिल जाता था, इसकी जरूरत न थी कि वे रात-दिन जानवरों का शिकार करते रहें। अब उन्हें सोचने और आराम करने की अधिक फुर्सत मिलने लगी। और उन्हें जितनी ही अधिक फुरसत मिलती थी, नई चीजें और तरीके निकालने में वे उतनी ही अधिक तरक्की करते थे। उन्होंने मिट्टी के बर्तन बनाने शुरू किए और उनकी मदद से खाना पकाने लगे। पत्थर के औजार भी अब अधिक अच्छे बनने लगे और उन पर पालिश भी अच्छी होने लगी। उन्होंने गाय, कुत्ता, भेड़, बकरी वगैरह जानवरों को पालना सीख लिया और वे कपडे़ भी बुनने लगे।
वे छोटे-छोटे घरों या झोंपड़ों में रहते थे। ये झोंपड़े अकसर झीलों के बीच में बनाए जाते थे, क्योंकि जंगली जानवर या दूसरे आदमी वहाँ उन पर आसानी से हमला न कर सकते थे। इसलिए ये लोग झील के रहनेवाले कहलाते थे।
तुम्हें अचंभा होता होगा कि इन आदमियों के बारे में हमें इतनी बातें कैसे मालूम हो गईं। उन्होंने कोई पुस्तक तो लिखी नहीं। लेकिन मैं तुमसे पहले ही कह चुका हूँ कि इन आदमियों का हाल जिस पुस्तक में हमें मिलता है वह संसार की पुस्तक है। उसे पढ़ना आसान नहीं है। उसके लिए बड़े अभ्यास की जरूरत है। बहुत-से आदमियों ने इस पुस्तक के पढ़ने में अपनी सारी उम्र खत्म कर दी है। उन्होंने बहुत-सी हड्डियाँ और पुराने जमाने की बहुत-सी निशानियाँ जमा कर दी हैं। ये चीजें बड़े-बड़े अजायबघरों में जमा हैं, और वहाँ हम उम्दा चमकती हुई कुल्हाड़ियाँ और बर्तन, पत्थर के तीर और सुइयाँ, बहुत-सी दूसरी चीजें देख सकते हैं, जो पिछले पत्थर युग के आदमी बनाते थे। तुमने खुद इनमें से बहुत-सी चीजें देखी हैं, लेकिन शायद तुम्हें याद न हो। अगर तुम फिर उन्हें देखो तो अधिक अच्छी तरह समझ सकोगी।
मुझे याद आता है कि जिनेवा के अजायबघर में झील के मकान का एक बहुत अच्छा नमूना रखा हुआ था। झील में लकड़ी के डंडे गाड़ दिए गए थे और उनके ऊपर लकड़ी के तख्ते बाँध कर उन पर झोंपड़ियाँ बनाई गई थीं। इस घर और जमीन के बीच में एक छोटा-सा पुल बना दिया गया था। ये पिछले पत्थर के युगवाले आदमी, जानवरों की खालें पहनते थे और कभी-कभी सन के मोटे कपड़े भी पहनते थे। सन एक पौधा है जिसके रेशों से कपड़ा बनता है। आजकल सन से महीन कपड़े बनाए जाते हैं। लेकिन उस जमाने के सन के पकड़े बहुत ही भद्दे रहे होंगे।
ये लोग इसी तरह तरक्की करते चले गए; यहाँ तक कि उन्होंने ताँबे और काँसे के औजार बनाने शुरू किए। तुम्हें मालूम है कि काँसा, तांबे और रांगे के मेल से बनता है और इन दोनों से अधिक सख्त होता है। वे सोने का इस्तेमाल करना भी जानते थे और इसके जेवर बनाकर इतराते थे।
हमें यह ठीक तो मालूम नहीं कि इन लोगों को हुए कितने दिन गुजरे लेकिन अंदाज से मालूम होता है कि दस हजार वर्ष से कम न हुए होंगे। अभी तक तो हम लाखों बरसों की बात कर रहे थे, लेकिन धीरे-धीरे हम आजकल के जमाने के करीब आते जाते हैं। नए पाषाण युग के आदमियों में और आजकल के आदमियों में एकाएक कोई तब्दीली नहीं आ गई। फिर भी हम उनके-से नहीं हैं। जो कुछ तब्दीलियाँ हुईं बहुत धीरे-धीरे हुईं और यही प्रकृति का नियम है। तरह-तरह की कौमें पैदा हुईं और हर एक कौम के रहन-सहन का ढंग अलग था। दुनिया के अलग-अलग हिस्सों की आबोहवा में बहुत फर्क था और आदमियों को अपना रहन-सहन उसी के मुताबिक बनाना पड़ता था। इस तरह लोगों में तब्दीलियाँ होती जाती थीं। लेकिन इस बात का जिक्र हम आगे चल कर करेंगे।
आज मैं तुमसे सिर्फ एक बात का जिक्र और करूँगा। जब नया पत्थर का युग खत्म हो रहा था तो आदमी पर एक बड़ी आफत आई। मैं तुमसे पहले ही कह चुका हूँ कि उस जमाने में भूमध्य सागर था ही नहीं। वहाँ चंद झीलें थीं और इन्हीं में लोग आबाद थे। एकाएक यूरोप और अफ्रीका के बीच में जिब्राल्टर के पास जमीन बह गई और अटलांटिक समुद्र का पानी उस नीचे गढढ़े में भर आया। इस बाढ़ में बहुत-से पुरुष और औरतें जो वहाँ रहते थे डूब गए होंगे। भाग कर जाते कहाँ? सैकड़ों मील तक पानी के सिवा कुछ नजर ही न आता था। अटलांटिक सागर का पानी बराबर भरता गया और इतना भरा कि भूमध्य सागर बन गया।
तुमने शायद पढ़ा होगा, कम से कम सुना तो है ही, कि किसी जमाने में बड़ी भारी बाढ़ आई थी। बाइबिल में इसका जिक्र है और बाज संस्कृत की किताबों में भी उसकी चर्चा आई है। हम तो समझते हैं कि भूमध्य सागर का भरना ही वह बाढ़ होगी। यह इतनी बड़ी आफत थी कि इससे बहुत थोड़े आदमी बचे होंगे। और उन्होंने अपने बच्चों से यह हाल कहा होगा। इसी तरह यह कहानी हम तक पहुँची।
अपने पिछले पत्र में मैंने नए पत्थर-युग के आदमियों का जिक्र किया था जो विशेषकर झीलों के बीच में मकानों में रहते थे। उन लोगों ने बहुत-सी बातों में बड़ी तरक्की कर ली थी। उन्होंने खेती करने का तरीका निकाला। वे खाना पकाना जानते थे और यह भी जानते थे कि जानवरों को पाल कर कैसे काम लिया जा सकता है। ये बातें कई हजार वर्ष पुरानी हैं और हमें उनका हाल बहुत कम मालूम है लेकिन शायद आज दुनिया में
अपने पिछले पत्र में मैंने नए पत्थर-युग के आदमियों का जिक्र किया था जो विशेषकर झीलों के बीच में मकानों में रहते थे। उन लोगों ने बहुत-सी बातों में बड़ी तरक्की कर ली थी। उन्होंने खेती करने का तरीका निकाला। वे खाना पकाना जानते थे और यह भी जानते थे कि जानवरों को पाल कर कैसे काम लिया जा सकता है। ये बातें कई हजार वर्ष पुरानी हैं और हमें उनका हाल बहुत कम मालूम है लेकिन शायद आज दुनिया में आदमियों की जितनी कौमें हैं उनमें से अकसर उन्हीं नए पत्थर-युग के आदमियों की सन्तान हैं। यह तो तुम जानती ही हो
कि आज-कल दुनिया में गोरे, काले, पीले, भूरे सभी रंगों के आदमी हैं। लेकिन सच्ची बात तो यह है कि आदमियों की कौमों को इन्हीं चार हिस्सों में बाँट देना आसान नहीं है। कौमों में ऐसा मेल-जोल हो गया है कि उनमें से बहुतों के बारे में यह बताना कि वह किस कौम में से हैं बहुत मुश्किल है। वैज्ञानिक लोग आदमियों के सिरों को नापकर कभी-कभी उनकी कौम का पता लगा लेते हैं, और भी ऐसे कई तरीके हैं जिनसे इस बात का पता चल सकता है।
अब सवाल यह होता है कि ये तरह-तरह की कौमें कैसे पैदा हुईं? अगर सब बस एक ही कौम के हैं तो उनमें आज इतना फर्क क्यों है? जर्मन और हब्शी में कितना फर्क है! एक गोरा है और दूसरा बिल्कुल काला। जर्मन के बाल हल्के रंग के और लंबे होते हैं मगर हब्शी के बाल काले, छोटे और घुँघराले होते हैं। चीनी को देखो तो वह इन दोनों से अलग हैं। तो यह बताना बहुत मुश्किल है कि यह फर्क क्योंकर पैदा हो गया, हाँ इसके कुछ कारण हमें मालूम हैं। मैं तुम्हें पहले ही बता चुका हूँ कि ज्यों-ज्यों जानवरों का रंग-ढंग आसपास की चीजों के मुताबिक होता गया उनमें धीरे-धीरे तब्दीलियाँ पैदा होती गईं। हो सकता है कि जर्मन और हब्शी अलग-अलग कौमों से पैदा हुए हों लेकिन किसी न
किसी जमाने में उनके पुरखे एक ही रहे होंगे। उनमें जो फर्क पैदा हुआ उसकी वजह या तो यह हो सकती है कि उन्हें अपना रहन-सहन अपने पास पड़ोस की चीजों के मुताबिक बनाना पड़ा या यह कि बाज जानवरों की तरह कुछ जातियों ने औरों से अधिक आसानी के साथ अपना रहन-सहन बदल दिया हो।
मैं तुमको इसकी एक मिवर्ष देता हूँ। जो आदमी उत्तर के ठंडे और बर्फीले मुल्कों में रहता है उसमें सर्दी बरदाश्त करने की ताकत पैदा हो जाती है। इस जमाने में भी इस्कीमो जातिवाले उत्तर के बर्फीले मैदानों में रहते हैं और वहाँ की भयानक सर्दी बरदाश्त करते हैं। अगर वे हमारे जैसे गर्म मुल्क में आऍं तो शायद जीते ही न रह सकें। और चूँकि वे दुनिया के और हिस्सों से अलग हैं और उन्हें बड़ी कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है, उन्हें दुनिया की उतनी बातें नहीं मालूम हुईं जितनी और हिस्सों के रहनेवाले जानते हैं। जो लोग अफ्रीका या विषुवत-रेखा के पास रहते हैं, जहाँ बड़ी सख्त गर्मी पड़ती है, इस गर्मी के आदी हो जाते हैं। इसी तेज़ धूप के सबब से उनका रंग काला हो जाता है। यह तो तुमने देखा ही है कि अगर तुम समुद्र के किनारे या कहीं और देर तक धूप में बैठो तो तुम्हारा चेहरा साँवला हो जाता है। अगर चंद
हफ्तों तक धूप खाने से आदमी कुछ काला पड़ जाता है तो वह आदमी कितना काला होगा जिसे हमेशा धूप ही में रहना पड़ता है। तो फिर जो लोग सैकड़ों वर्षों तक गर्म मुल्कों में रहें और वहाँ रहते उनकी कई पीढ़ियाँ गुजर जाऍं उनके काले हो जाने में क्या ताज्जुब है। तुमने हिंदुस्तानी किसानों को दोपहरी की धूप में खेतों में काम करते देखा है। वे गरीबी की वजह से न अधिक कपड़े पहन सकते हैं, न पहनते हैं। उनकी सारी देह धूप में खुली रहती है और इसी तरह उनकी पूरी उम्र गुजर जाती है। फिर वे क्यों न काले हो जाऍं।
इससे तुम्हें यह मालूम हुआ कि आदमी का रंग उस आबोहवा की वजह से बदल जाता है जिसमें वह रहता है। रंग से आदमी की लियाकत, भलमनसी या खूबसूरती पर कोई असर नहीं पड़ता। अगर गोरा आदमी किसी गर्म मुल्क में बहुत दिनों तक रहे और धूप से बचने के लिए टट्टियों की आड़ में या पंखों के नीचे न छिपा बैठा रहे, तो वह जरूर साँवला हो जाएगा। तुम्हें मालूम है कि हम लोग कश्मीरी हैं और सौ वर्ष पहले हमारे पुरखे कश्मीर में रहते थे। कश्मीर में सभी आदमी, यहाँ तक कि किसान और मजदूर भी, गोरे होते हैं। इसका सबब यही है कि कश्मीर की आबोहवा सर्द है। लेकिन वही कश्मीरी जब हिंदुस्तान के दूसरे हिस्सों
में आते हैं, जहाँ अधिक गर्मी पड़ती है, कई पुश्तों के बाद सॉंवले हो जाते हैं। हमारे बहुत-से कश्मीरी भाई खूब गोरे हैं और बहुत-से बिल्कुल सॉंवले भी हैं। कश्मीरी जितने अधिक दिनों तक हिंदुस्तान के इस हिस्से में रहेगा उसका रंग उतना ही सॉंवला होगा।
अब तुम समझ गईं कि आबोहवा ही की वजह से आदमी का रंग बदल जाता है। यह हो सकता है कि कुछ लोग गर्म मुल्क में रहें लेकिन मालदार होने की वजह से उन्हें धूप में काम न करना पड़े, वे बड़े-बड़े मकानों में रहें और अपने रंग को बचा सकें। अमीर खानदान इस तरह कई पीढ़ियों तक अपने रंग को आबोहवा के असर से बचाए रख सकता है लेकिन अपने हाथों से काम न करना और दूसरों की कमाई खाना ऐसी बात नहीं जिस पर हम गरूर कर सकें। तुमने देखा है कि हिंदुस्तान में कश्मीर और पंजाब के आदमी आम तौर पर गोरे होते हैं लेकिन ज्यों-ज्यों हम दक्षिण जाऐं वे काले होते जाते हैं। मद्रास और श्रीलंका में ये बिल्कुल काले होते हैं। तुम जरूर ही समझ जाओगी कि इसका सबब आबोहवा है। क्योंकि दक्षिण की तरफ हम जितना ही बढ़ें विषुवत-रेखा के पास पहूँचते जाते हैं और गर्मी बढ़ती जाती है। यह बिल्कुल ठीक है और यही एक खास वजह है कि हिंदुस्तानियों के रंग में इतना फर्क है।
हम आगे चल कर देखेंगे कि यह फर्क कुछ इस वजह से भी है कि शुरू में जो कौमें हिंदुस्तान में आ कर बसी थीं उनमें आपस में फर्क था। पुराने जमाने में हिंदुस्तान में बहुत-सी कौमें आईं और हालाँकि बहुत दिनों तक उन्होंने अलग रहने की कोशिश की लेकिन वे आखिर में बिना मिले न रह सकीं। आज किसी हिन्दुस्तानी के बारे में यह कहना मुश्किल है कि वह पूरी तरह से किसी एक असली कौम का है।
हम यह नहीं कह सकते कि दुनिया के किस हिस्से में पहले-पहल आदमी पैदा हुए। न हमें यही मालूम है कि शुरू में वह कहाँ बसे। शायद आदमी एक ही वक्त में, कुछ आगे पीछे दुनिया के कई हिस्सों में पैदा हुए। हाँ, इसमें अधिक सन्देह नहीं है कि ज्यों-ज्यों बर्फ के जमाने के बड़े-बड़े बर्फीले पहाड़ पिघलते और उत्तर की ओर हटते जाते थे, आदमी अधिक गर्म हिस्सों में आते जाते थे। बर्फ के पिघल जाने के बाद बड़े-बड़े
हम यह नहीं कह सकते कि दुनिया के किस हिस्से में पहले-पहल आदमी पैदा हुए। न हमें यही मालूम है कि शुरू में वह कहाँ बसे। शायद आदमी एक ही वक्त में, कुछ आगे पीछे दुनिया के कई हिस्सों में पैदा हुए। हाँ, इसमें अधिक सन्देह नहीं है कि ज्यों-ज्यों बर्फ के जमाने के बड़े-बड़े बर्फीले पहाड़ पिघलते और उत्तर की ओर हटते जाते थे, आदमी अधिक गर्म हिस्सों में आते जाते थे। बर्फ के पिघल जाने के बाद बड़े-बड़े मैदान बन गए होंगे, कुछ उन्हीं मैदानों की तरह जो आजकल साइबेरिया में हैं। इस जमीन पर घास उग आई और आदमी अपने जानवरों को चराने के लिए इधर-उधर घूमते-फिरते होंगे। जो लोग किसी एक जगह टिक कर नहीं रहते बल्कि हमेशा घूमते रहते हैं 'खानाबदोश' कहलाते हैं। आज भी हिंदुस्तान और बहुत से दूसरे मुल्कों में ये खानाबदोश या बंजारे मौजूद हैं।
आदमी बड़ी-बड़ी नदियों के पास बसे होंगे, क्योंकि नदियों के पास की जमीन बहुत उपजाऊ और खेती के लिए बहुत अच्छी होती है। पानी की तो कोई कमी थी ही नहीं और जमीन में खाने की चीजें आसानी से पैदा हो जाती थीं, इसलिए हमारा खयाल है कि हिंदुस्तान में लोग सिन्धु और गंगा जैसी बड़ी-बड़ी नदियों के पास बसे होंगे, मेसोपोटैमिया में दजला और फरात के पास, मिस्र में नील के पास और उसी तरह चीन में भी हुआ होगा।
हिंदुस्तान की सबसे पुरानी कौम, जिसका हाल हमें कुछ मालूम है, द्रविड़ है। उसके बाद, हम जैसा आगे देखेंगे, आर्य आए और पूरब में मंगोल जाति के लोग आए। आजकल भी दक्षिणी हिंदुस्तान के आदमियों में बहुत-से द्रविड़ों की संतानें हैं। वे उत्तर के आदमियों से अधिक काले हैं, इसलिए कि शायद द्रविड़ लोग हिंदुस्तान में और अधिक दिनों से रह रहे हैं। द्रविड़ जातिवालों ने बड़ी उन्नति कर ली थी, उनकी अलग एक जबान थी और वे दूसरी जातिवालों से बड़ा व्यापार भी करते थे। लेकिन हम बहुत तेजी से बढ़े जा रहे हैं।
उस जमाने में पश्चिमी-एशिया और पूर्वी-यूरोप में एक नई जाति पैदा हो रही थी। यह आर्य कहलाती थी। संस्कृत में आर्य शब्द का अर्थ है शरीफ आदमी या ऊँचे कुल का आदमी। संस्कृत आर्यों की एक जबान थी इसलिए इससे मालूम होता है कि वे लोग अपने को बहुत शरीफ और खानदानी समझते थे। ऐसा मालूम होता है कि वे लोग भी आजकल के आदमियों की ही तरह शेखीबाज थे। तुम्हें मालूम है कि अंग्रेज अपने को दुनिया में सबसे बढ़ कर समझता है, फ्रांसीसी का भी यही खयाल है कि मैं ही सबसे बड़ा हूँ, इसी तरह जर्मन, अमरीकन और दूसरी जातियाँ भी अपने ही बड़प्पन का राग अलापती हैं।
ये आर्य उत्तरी-एशिया और यूरोप के चरागाहों में घूमते रहते थे। लेकिन जब उनकी आबादी बढ़ गई और पानी और चारे की कमी हो गई तो उन सबके लिए खाना मिलना मुश्किल हो गया इसलिए वे खाने की तलाश में दुनिया के दूसरे हिस्सों में जाने के लिए मजबूर हुए। एक तरफ तो वे सारे यूरोप में फैल गए, दूसरी तरफ हिंदुस्तान, ईरान और मेसोपोटैमिया में आ पहुँचे। इससे मालूम होता है कि यूरोप, उत्तरी हिंदुस्तान और मेसोपोटैमिया की सभी जातियाँ असल में एक ही पुरखों की संतान हैं, यानी आर्यों की; हालाँकि आजकल उनमें बड़ा फर्क है। यह तो मानी हुई बात है कि इधर बहुत जमाना गुजर गया और तब से बड़ी-बड़ी तब्दीलियाँ हो गईं और कौमें आपस में बहुत कुछ मिल गईं। इस तरह आज की बहुत-सी जातियों के पुरखे आर्य ही थे।
दूसरी बड़ी जाति मंगोल हैं। यह सारे पूर्वी एशिया अर्थात चीन, जापान, तिब्बत, स्याम (अब थाइलैंड) और बर्मा में फैल गई। उन्हें कभी-कभी पीली जाति भी कहते हैं। उनके गालों की हड्डियाँ ऊँची और आँखें छोटी होती हैं।
अफ्रीका और कुछ दूसरी जगहों के आदमी हब्शी हैं। वे न आर्य हैं, न मंगोल और उनका रंग बहुत काला होता है। अरब और फलिस्तीन की जातियाँ अरबी और यहूदी एक दूसरी ही जाति से पैदा हुईं।
ये सभी जातियाँ हजारों वर्ष के दौरान में बहुत-सी छोटी जातियों में बँट गई हैं और कुछ मिल-जुल गई हैं। मगर हम उनकी तरफ धयान न देंगे। भिन्न-भिन्न जातियों के पहचान का एक अच्छा और दिलचस्प तरीका उनकी जबानों का पढ़ना है। शुरू-शुरू में हर एक जाति की एक अलग जबान थी, लेकिन ज्यों-ज्यों दिन गुजरते गए उस एक जबान से बहुत-सी जबानें निकलती गईं। लेकिन ये सब जबानें एक ही माँ की बेटियॉं हैं। हमें उन जबानों में बहुत-से शब्द एक-से ही मिलते हैं और इससे मालूम होता है कि उनमें कोई गहरा नाता है।
जब आर्य एशिया और यूरोप में फैल गए तो उनका आपस में मेल-जोल न रहा। उस जमाने में न रेलगाड़ियाँ थीं, न तार व डाक, यहाँ तक कि लिखी हुई पुस्तकें तक न थीं। इसलिए आर्यों का हर एक हिस्सा एक ही जबान को अपने-अपने ढंग से बोलता था, और कुछ दिनों के बाद यह असली जबान से, या आर्य देशों की दूसरी बहनों से, बिल्कुल अलग हो गई। यही सबब है कि आज दुनिया में इतनी जबानें मौजूद हैं।
लेकिन अगर हम इन जबानों को गौर से देखें तो मालूम होगा कि वे बहुत-सी हैं लेकिन असली जबानें बहुत कम हैं। मिवर्ष के तौर पर देखो कि जहाँ-जहाँ आर्य जाति के लोग गए वहाँ उनकी जबान आर्य खानदान की ही रही है। संस्कृत, लैटिन, यूनानी, अंग्रेजी, फ्रांसीसी, जर्मन, इटालियन और बाज दूसरी जबानें सब बहनें हैं और आर्य खानदान की ही हैं। हमारी हिन्दुस्तानी जबानों में भी जैसे हिंदी, उर्दू, बाँग्ला, मराठी और गुजराती सब संस्कृत की संतान हैं और आर्य परिवार में शामिल हैं।
जबान का दूसरा बड़ा खानदान चीनी है। चीनी, बर्मी, तिब्बती और स्यामी जबानें उसी से निकली हैं। तीसरा खानदान शेम जबान का है, जिससे अरबी और इबरानी जबानें निकली हैं।
कुछ जबानें जैसे तुर्की और जापानी इनमें से किसी वंश में नहीं हैं। दक्षिणी हिंदुस्तान की कुछ जबानें, जैसे तमिल, तेगलु, मलयालम और कन्नड़ भी उन खानदानों में नहीं हैं। ये चारों द्रविड़ खानदान की हैं और बहुत पुरानी हैं।
हम बता चुके हैं कि आर्य बहुत-से मुल्कों में फैल गए और जो कुछ भी उनकी जबान थी उसे अपने साथ लेते गए। लेकिन तरह-तरह की आबोहवा और तरह-तरह की हालतों ने आर्यों की बड़ी-बड़ी जातियों में बहुत फर्क पैदा कर दिया। हर एक जाति अपने ही ढंग पर बदलती गई और उसकी आदतें और रस्में भी बदलती गईं। वे दूसरे मुल्कों में दूसरी जातियों से न मिल सकते थे, क्योंकि उस जमाने में सफर करना बहुत मुश्किल था, एक गिरोह दूसरे
हम बता चुके हैं कि आर्य बहुत-से मुल्कों में फैल गए और जो कुछ भी उनकी जबान थी उसे अपने साथ लेते गए। लेकिन तरह-तरह की आबोहवा और तरह-तरह की हालतों ने आर्यों की बड़ी-बड़ी जातियों में बहुत फर्क पैदा कर दिया। हर एक जाति अपने ही ढंग पर बदलती गई और उसकी आदतें और रस्में भी बदलती गईं। वे दूसरे मुल्कों में दूसरी जातियों से न मिल सकते थे, क्योंकि उस जमाने में सफर करना बहुत मुश्किल था, एक गिरोह दूसरे से अलग होता था। अगर एक मुल्क के आदमियों को कोई नई बात मालूम हो जाती, तो वे उसे दूसरे मुल्कवालों को न बता सकते। इस तरह तब्दीलियाँ होती गई और कई पुश्तों के बाद एक आर्य जाति के बहुत-से टुकड़े हो गए। शायद वे यह भी भूल गए कि हम एक ही बड़े खानदान से हैं। उनकी एक जबान से बहुत-सी जबानें पैदा हो गईं जो आपस में बहुत कम मिलती-जुलती थीं।
लेकिन उनमें इतना फर्क मालूम होता था, उनमें बहुत से शब्द एक ही थे, और कई दूसरी बातें भी मिलती-जुलती थीं। आज हजारों वर्ष के बाद भी हमें तरह-तरह की भाषाओं में एक ही शब्द मिलते हैं। इससे मालूम होता है कि किसी जमाने में ये भाषाएँ एक ही रही होंगी। तुम्हें मालूम है कि फ्रांसीसी और अंग्रेजी में बहुत-से एक जैसे शब्द हैं। दो बहुत घरेलू और मामूली शब्द ले लो, 'फादर' और 'मदर', हिंदी और संस्कृत में यह शब्द 'पिता' और 'माता' हैं। लैटिन में वे 'पेटर' और 'मेटर' हैं; यूनान में 'पेटर' और 'मीटर'; जर्मन में 'फाटेर' और 'मुत्तार'; फ्रांसीसी में 'पेर' और 'मेर' और इसी तरह और जबानों में भी। ये शब्द आपस में कितने मिलते-जुलते हैं! भाई बहनों की तरह उनकी सूरतें कितनी समान हैं! यह सच है कि बहुत-से शब्द एक भाषा से दूसरी भाषा में आ गए होंगे। हिंदी ने बहुत से शब्द अंग्रेजी से लिए हैं और अंग्रेज़ी ने भी कुछ शब्द हिंदी से लिए हैं। लेकिन 'फादर' और 'मदर' इस तरह कभी न लिये गए होंगे। ये नए शब्द नहीं हो सकते। शुरू-शुरू में जब लोगों ने एक दूसरे से बात करनी सीखी तो उस वक्त माँ-बाप तो थे ही, उनके लिए शब्द भी बन गए। इसलिए हम कह सकते हैं कि ये शब्द बाहर से नहीं आए। वे एक ही पुरखे या एक ही खानदान से निकले होंगे। और इससे हमें मालूम हो सकता है कि जो कौमें आज दूर-दूर के मुल्कों में रहती हैं और भिन्न-भिन्न भाषाएँ बोलती हैं वे सब किसी जमाने में एक ही बड़े खानदान की रही होंगी। तुमने देख लिया न कि जबानों का सीखना कितना दिलचस्प है और उससे हमें कितनी बातें मालूम होती हैं। अगर हम तीन-चार जबानें जान जाएँ तो और जबानों का सीखना आसान हो जाता है।
तुमने यह भी देखा कि बहुत-से आदमी जो अब दूर-दूर मुल्कों में एक-दूसरे से अलग रहते हैं, किसी जमाने में एक ही कौम के थे। तब से हम में बहुत फर्क हो गया है और हम अपने पुराने रिश्ते भूल गए हैं। हर एक मुल्क के आदमी खयाल करते हैं कि हमीं सबसे अच्छे और अक्लमंद हैं और दूसरी जातें हमसे घटिया हैं। अंग्रेज खयाल करता है कि वह और उसका मुल्क सबसे अच्छा है; फ्रांसीसी को अपने मुल्क और सभी फ्रांसीसी चीजों पर घमंड है; जर्मन और इटालियन अपने मुल्कों को सबसे ऊँचा समझते हैं। और बहुत-से हिंदुस्तानियों का खयाल है कि हिंदुस्तान बहुत-सी बातों में सारी दुनिया से बढ़ा हुआ है। यह सब डींग है। हर एक आदमी अपने को और अपने मुल्क को अच्छा समझता है लेकिन दरअसल कोई ऐसा आदमी नहीं है जिसमें कुछ ऐब और कुछ हुनर न हों। इसी तरह कोई ऐसा मुल्क नहीं है जिसमें कुछ बातें अच्छी और कुछ बुरी न हों। हमें जहाँ कहीं अच्छी बात मिलें उसे ले लेना चाहिए और बुराई जहाँ कहीं हो उसे दूर कर देना चाहिए। हमको तो अपने मुल्क हिंदुस्तान की ही सबसे अधिक फिक्र है। हमारे दुर्भाग्य से इसका जमाना आजकल बहुत खराब है और बहुत-से आदमी गरीब और दुखी हैं। उन्हें अपनी जिंदगी में कोई खुशी नहीं है। हमें इसका पता लगाना है कि हम उन्हें कैसे सुखी बना सकते हैं। यह देखना है कि हमारे रस्म-रिवाज में क्या खूबियाँ हैं और उनको बचाने की कोशिश करना है, जो बुराइयाँ हैं उन्हें दूर करना है। अगर हमें दूसरे मुल्कों में कोई अच्छी बात मिले तो उसे जरूर ले लेनी चाहिए।
हम हिंदुस्तानी हैं और हमें हिंदुस्तान में रहना और उसी की भलाई के लिए काम करना है लेकिन हमें यह न भूलना चाहिए कि दुनिया के और हिस्सों के रहनेवाले हमारे रिश्तेदार और कुटुम्बी हैं। क्या ही अच्छी बात होती अगर दुनिया के सभी आदमी खुश और सुखी होते। हमें कोशिश करनी चाहिए कि सारी दुनिया ऐसी हो जाए जहाँ लोग चैन से रह सकें।
मैं आज तुम्हें पुराने जमाने की सभ्यता का कुछ हाल बताता हूँ। लेकिन इसके पहले हमें यह समझ लेना चाहिए कि सभ्यता का अर्थ क्या है? कोश में तो इसका अर्थ लिखा है अच्छा करना, सुधारना, जंगली आदतों की जगह अच्छी आदतें पैदा करना। और इसका व्यवहार किसी समाज या जाति के लिए ही किया जाता है। आदमी की जंगली दशा को, जब वह बिल्कुल जानवरों-सा होता है, बर्बरता कहते हैं। सभ्यता बिल्कुल उसकी उलटी चीज है। हम
मैं आज तुम्हें पुराने जमाने की सभ्यता का कुछ हाल बताता हूँ। लेकिन इसके पहले हमें यह समझ लेना चाहिए कि सभ्यता का अर्थ क्या है? कोश में तो इसका अर्थ लिखा है अच्छा करना, सुधारना, जंगली आदतों की जगह अच्छी आदतें पैदा करना। और इसका व्यवहार किसी समाज या जाति के लिए ही किया जाता है। आदमी की जंगली दशा को, जब वह बिल्कुल जानवरों-सा होता है, बर्बरता कहते हैं। सभ्यता बिल्कुल उसकी उलटी चीज है। हम बर्बरता से जितनी ही दूर जाते हैं उतने ही सभ्य होते जाते हैं।
लेकिन हमें यह कैसे मालूम हो कि कोई आदमी या समाज जंगली है या सभ्य? यूरोप के बहुत-से आदमी समझते हैं कि हमीं सभ्य हैं और एशियावाले जंगली हैं। क्या इसका यह सबब है कि यूरोपवाले एशिया और अफ्रीकावालों से अधिक कपड़े पहनते हैं? लेकिन कपड़े तो आबोहवा पर निर्भर करते हैं। ठंडे मुल्क में लोग गर्म मुल्कवालों से अधिक कपड़े पहनते हैं। तो क्या इसका यह सबब है कि जिसके पास बंदूक है वह निहत्थे आदमी से अधिक मजबूत और इसलिए अधिक सभ्य है? चाहे वह अधिक सभ्य हो या न हो, कमजोर आदमी उससे यह नहीं कह सकता कि आप सभ्य नहीं हैं। कहीं मजबूत आदमी झल्ला कर उसे गोली मार दे, तो वह बेचारा क्या करेगा?
तुम्हें मालूम है कि कई वर्ष पहले एक बड़ी लड़ाई हुई थी! दुनिया के बहुत- से मुल्क उसमें शरीक थे और हर एक आदमी दूसरी तरफ के अधिक से अधिक आदमियों को मार डालने की कोशिश कर रहा था। अंग्रेज जर्मनीवालों के खून के प्यासे थे और जर्मन अंग्रेजों के खून के। इस लड़ाई में लाखों आदमी मारे गए और हजारों के अंग-भंग हो गए कोई अंधा हो गया, कोई लूला, कोई लँगड़ा। तुमने फ्रांस और दूसरी जगह भी ऐसे बहुत-से लड़ाई के जख्मी देखे होंगे। पेरिस की सुरंगवाली रेलगाड़ी में, जिसे मेट्रो कहते हैं, उनके लिए खास जगहें हैं। क्या तुम समझती हो कि इस तरह अपने भाइयों को मारना सभ्यता और समझदारी की बात है? दो आदमी गलियों में लड़ने लगते हैं, तो पुलिसवाले उनमें बीच बचाव कर देते हैं और लोग समझते हैं कि ये दोनों कितने बेवकूफ हैं। तो जब दो बड़े-बड़े मुल्क आपस में लड़ने लगें और हजारों और लाखों आदमियों को मार डालें तो वह कितनी बड़ी बेवकूफी और पागलपन है। यह ठीक वैसा ही है जैसे दो वहशी जंगलों में लड़ रहे हों। और अगर वहशी आदमी जंगली कहे जा सकते हैं तो वह मूर्ख कितने जंगली हैं जो इस तरह लड़ते हैं?
अगर इस निगाह से तुम इस मामले को देखो, तो तुम फौरन कहोगी कि इंग्लैंड, जर्मनी, फ्रांस, इटली और बहुत से दूसरे मुल्क जिन्होंने इतनी मार-काट की, जरा भी सभ्य नहीं हैं। और फिर भी तुम जानती हो कि इन मुल्कों में कितनी अच्छी-अच्छी चीजें हैं और वहाँ कितने अच्छे-अच्छे आदमी रहते हैं।
अब तुम कहोगी कि सभ्यता का मतलब समझना आसान नहीं है, और यह ठीक है। यह बहुत ही मुश्किल मामला है। अच्छी-अच्छी इमारतें, अच्छी-अच्छी तस्वीरें और पुस्तकें और तरह-तरह की दूसरी और खूबसूरत चीजें जरूर सभ्यता की पहचान हैं। मगर एक भला आदमी जो स्वार्थी नहीं है और सबकी भलाई के लिए दूसरों के साथ मिल कर काम करता है, सभ्यता की इससे भी बड़ी पहचान है। मिल कर काम करना अकेले काम करने से अच्छा है और सबकी भलाई के लिए एक साथ मिल कर काम करना सबसे अच्छी बात है।
जातियों का बनना
मैंने पिछले खतों में तुम्हें बताया है कि शुरू में जब आदमी पैदा हुआ तो वह बहुत कुछ जानवरों से मिलता था। धीरे-धीरे हजारों वर्षों में उसने तरक्की की और पहले से अधिक होशियार हो गया। पहले वह अकेले ही जानवरों का शिकार करता होगा, जैसे जंगली जानवर आज भी करते हैं। कुछ दिनों के बाद उसे मालूम हुआ कि और आदमियों के साथ एक गिरोह में रहना अधिक अक्ल की बात है और उसमें जान जाने का भय भी कम है। एक साथ रहकर वह अधिक मजबूत हो जाते थे और जानवरों या दूसरे आदमियों के हमलों का अधिक अच्छी तरह मुकाबला कर सकते थे। जानवर भी तो अपनी रक्षा के लिए अकसर झुंडों में रहा करते हैं। भेड़, बकरियाँ और हिरन, यहाँ तक कि हाथी भी झुंडों में ही रहते हैं। जब झुंड सोता है, तो उनमें से एक जागता रहता है और उनका पहरा देता है। तुमने भेड़ियों के झुंड की कहानियाँ पढ़ी होंगी। रूस में जाड़ों के दिनों में वे झुंड बांधाकर चलते हैं और जब उन्हें भूख लगती है, जाड़ों में उन्हें अधिक भूख लगती भी है, तो आदमियों पर हमला कर देते हैं। एक भेड़िया कभी आदमी पर हमला नहीं करता लेकिन उनका एक झुंड इतना मजबूत हो जाता है कि वह कई आदमियों पर भी हमला कर बैठता है। तब आदमियों को अपनी जान लेकर भागना पड़ता है और अक्सर भेड़ियों और बर्फ वाली गाड़ियों में बैठे हुए आदमियों में दौड़ होती है।
इस तरह पुराने जमाने के आदमियों ने सभ्यता में जो पहली तरक्की की वह मिल कर झुंडों में रहना था। इस तरह जातियों (फिरकों) की बुनियाद पड़ी। वे साथ-साथ काम करने लगे। वे एक दूसरे की मदद करते रहते थे। हर एक आदमी पहले अपनी जाति का खयाल करता था और तब अपना। अगर जाति पर कोई संकट आता तो हर एक आदमी जाति की तरफ से लड़ता था। और अगर कोई आदमी जाति के लिए लड़ने से इन्कार करता तो बाहर निकाल दिया जाता था।
अब अगर बहुत से आदमी एक साथ मिल कर काम करना चाहते हैं तो उन्हें कायदे के साथ काम करना पड़ेगा। अगर हर एक आदमी अपनी मर्जी के मुताबिक काम करे तो वह जाति बहुत दिन न चलेगी। इसलिए किसी एक को उनका सरदार बनना पड़ता है। जानवरों के झुंडों में भी तो सरदार होते हैं। जातियों में वही आदमी सरदार चुना जाता था जो सबसे मजबूत होता था इसलिए कि उस जमाने में बहुत लड़ाई करनी पड़ती थी।
अगर एक जाति के आदमी आपस में लड़ने लगें तो जाति नष्ट हो जाएगी। इसलिए सरदार देखता रहता था कि लोग आपस में न लड़ने पाएँ। हाँ, एक जाति दूसरी जाति से लड़ सकती थी और लड़ती थी। यह तरीका उस पुराने तरीके से अच्छा था जब हर एक आदमी अकेला ही लड़ता था।
शुरू-शुरू की जातियाँ बड़े-बड़े परिवारों की तरह रही होंगी। उसके सब आदमी एक-दूसरे के रिश्तेदार होते होंगे। ज्यों-ज्यों यह परिवार बढ़े, जातियाँ भी बढ़ीं।
उस पुराने जमाने में आदमी का जीवन बहुत कठिन रहा होगा, विशेषकर जातियाँ बनने के पहले। न उनके पास कोई घर था, न कपड़े थे। हाँ, शायद जानवरों की खालें पहनने को मिल जाती हों। और उसे बराबर लड़ना पड़ता रहा होगा। अपने भोजन के लिए या तो जानवरों का शिकार करना पड़ता था या जंगली फल जमा करने पड़ते थे। उसे अपने चारों तरफ दुश्मन ही दुश्मन नजर आते होंगे। प्रकृति भी उसे दुश्मन मालूम होती होगी, क्योंकि ओले, बर्फ और भूचाल वही तो लाती थी। बेचारे की दशा कितनी दीन थी। जमीन पर रेंग रहा है, और हर एक चीज से भयता है इसलिए कि वह कोई बात समझ नहीं सकता। अगर ओले गिरते तो वह समझता कि कोई देवता बादल में बैठा हुआ उस पर निशाना मार रहा है। वह भय जाता था और उस बादल में बैठे हुए आदमी को खुश करने के लिए कुछ न कुछ करना चाहता था जो उस पर ओले और पानी और बर्फ गिरा रहा था। लेकिन उसे खुश करे तो कैसे! न वह बहुत समझदार था, न होशियार था। उसने सोचा होगा कि बादलों का देवता हमारी ही तरह होगा और खाने की चीजें पसन्द करता होगा। इसलिए वह कुछ माँस रख देता था, या किसी जानवर की कुरबानी करके छोड़ देता था कि देवता आकर खा ले। वह सोचता था कि इस उपाय से ओला या पानी बंद हो जाएगा। हमें यह पागलपन मालूम होता है क्योंकि हम मेह या ओले या बर्फ के गिरने का सबब जानते हैं जानवरों के मारने से उसका कोई संबंध नहीं है। लेकिन आज भी ऐसे आदमी मौजूद हैं जो इतने नासमझ हैं कि अब तक वही काम किये जाते हैं।
मैंने पिछले खतों में तुम्हें बताया है कि शुरू में जब आदमी पैदा हुआ तो वह बहुत कुछ जानवरों से मिलता था। धीरे-धीरे हजारों वर्षों में उसने तरक्की की और पहले से अधिक होशियार हो गया। पहले अकेले ही जानवरों का शिकार करता होगा, जैसे जंगली जानवर आज भी करते हैं। कुछ दिनों के बाद उसे मालूम हुआ कि और आदमियों के साथ एक गिरोह में रहना अधिक अक्ल की बात है और उसमें जान जाने का भय भी कम है। एक साथ
मैंने पिछले खतों में तुम्हें बताया है कि शुरू में जब आदमी पैदा हुआ तो वह बहुत कुछ जानवरों से मिलता था। धीरे-धीरे हजारों वर्षों में उसने तरक्की की और पहले से अधिक होशियार हो गया। पहले अकेले ही जानवरों का शिकार करता होगा, जैसे जंगली जानवर आज भी करते हैं। कुछ दिनों के बाद उसे मालूम हुआ कि और आदमियों के साथ एक गिरोह में रहना अधिक अक्ल की बात है और उसमें जान जाने का भय भी कम है। एक साथ रहकर वह अधिक मजबूत हो जाते थे और जानवरों या दूसरे आदमियों के हमलों का अधिक अच्छी तरह मुकाबला कर सकते थे। जानवर भी तो अपनी रक्षा के लिए अकसर झुंडों में रहा करते हैं। भेड़, बकरियाँ और हिरन, यहाँ तक कि हाथी भी झुंडों में ही रहते हैं। जब झुंड सोता है, तो उनमें से एक जागता रहता है और उनका पहरा देता है। तुमने भेड़ियों के झुंड की कहानियाँ पढ़ी होंगी। रूस में जाड़ों के दिनों में वे झुंड बांधाकर चलते हैं और जब उन्हें भूख लगती है, जाड़ों में उन्हें अधिक भूख लगती भी है, तो आदमियों पर हमला कर देते हैं। एक भेड़िया कभी आदमी पर हमला नहीं करता लेकिन उनका एक झुंड इतना मजबूत हो जाता है कि वह कई आदमियों पर भी हमला कर बैठता है। तब आदमियों को अपनी जान लेकर भागना पड़ता है और अक्सर भेड़ियों और बर्फ वाली गाड़ियों में बैठे हुए आदमियों में दौड़ होती है।
इस तरह पुराने जमाने के आदमियों ने सभ्यता में जो पहली तरक्की की वह मिल कर झुंडों में रहना था। इस तरह जातियों (फिरकों) की बुनियाद पड़ी। वे साथ-साथ काम करने लगे। वे एक दूसरे की मदद करते रहते थे। हर एक आदमी पहले अपनी जाति का खयाल करता था और तब अपना। अगर जाति पर कोई संकट आता तो हर एक आदमी जाति की तरफ से लड़ता था। और अगर कोई आदमी जाति के लिए लड़ने से इन्कार करता तो बाहर निकाल दिया जाता था।
अब अगर बहुत से आदमी एक साथ मिल कर काम करना चाहते हैं तो उन्हें कायदे के साथ काम करना पड़ेगा। अगर हर एक आदमी अपनी मर्जी के मुताबिक काम करे तो वह जाति बहुत दिन न चलेगी। इसलिए किसी एक को उनका सरदार बनना पड़ता है। जानवरों के झुंडों में भी तो सरदार होते हैं। जातियों में वही आदमी सरदार चुना जाता था जो सबसे मजबूत होता था इसलिए कि उस जमाने में बहुत लड़ाई करनी पड़ती थी।
अगर एक जाति के आदमी आपस में लड़ने लगें तो जाति नष्ट हो जाएगी। इसलिए सरदार देखता रहता था कि लोग आपस में न लड़ने
पाएँ। हाँ, एक जाति दूसरी जाति से लड़ सकती थी और लड़ती थी। यह तरीका उस पुराने तरीके से अच्छा था जब हर एक आदमी अकेला ही लड़ता था।
शुरू-शुरू की जातियाँ बड़े-बड़े परिवारों की तरह रही होंगी। उसके सब आदमी एक-दूसरे के रिश्तेदार होते होंगे। ज्यों-ज्यों यह परिवार बढ़े, जातियाँ भी बढ़ीं।
उस पुराने जमाने में आदमी का जीवन बहुत कठिन रहा होगा, विशेषकर जातियाँ बनने के पहले। न उनके पास कोई घर था, न कपड़े थे। हाँ, शायद जानवरों की खालें पहनने को मिल जाती हों। और उसे बराबर लड़ना पड़ता रहा होगा। अपने भोजन के लिए या तो जानवरों का शिकार करना पड़ता था या जंगली फल जमा करने पड़ते थे। उसे अपने चारों तरफ दुश्मन ही दुश्मन नजर आते होंगे। प्रकृति भी उसे दुश्मन मालूम होती होगी, क्योंकि ओले, बर्फ और भूचाल वही तो लाती थी। बेचारे की दशा कितनी दीन थी। जमीन पर रेंग रहा है, और हर एक चीज से भयता है इसलिए कि वह कोई बात समझ नहीं सकता। अगर ओले गिरते तो वह समझता कि कोई देवता बादल में बैठा हुआ उस पर
निशाना मार रहा है। वह भय जाता था और उस बादल में बैठे हुए आदमी को खुश करने के लिए कुछ न कुछ करना चाहता था जो उस पर ओले और पानी और बर्फ गिरा रहा था। लेकिन उसे खुश करे तो कैसे! न वह बहुत समझदार था, न होशियार था। उसने सोचा होगा कि बादलों का देवता हमारी ही तरह होगा और खाने की चीजें पसन्द करता होगा। इसलिए वह कुछ माँस रख देता था, या किसी जानवर की कुरबानी करके छोड़ देता था कि देवता आकर खा ले। वह सोचता था कि इस उपाय से ओला या पानी बंद हो जाएगा। हमें यह पागलपन मालूम होता है क्योंकि हम मेह या ओले या बर्फ के गिरने का सबब जानते हैं जानवरों के मारने से उसका कोई संबंध नहीं है। लेकिन आज भी ऐसे आदमी मौजूद हैं जो इतने नासमझ हैं कि अब तक वही काम किये जाते हैं।
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