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DOWNLOAD NOWअपने पिछले पत्र में मैंने कामों के अलग-अलग किए जाने का कुछ हाल बताया था। बिल्कुल शुरू में जब आदमी सिर्फ शिकार पर बसर करता था, काम बँटे हुए न थे। हर एक आदमी शिकार करता था और मुश्किल से खाने भर को पाता था। पहले पुरुषों और स्त्रियों के बीच में काम बँटना शुरू हुआ होगा, पुरुष शिकार करता होगा और महिला घर में रहकर बच्चों और पालतू जानवरों की निगरानी करती होगी।
जब आदमियों ने खेती करना सीखा
अपने पिछले पत्र में मैंने कामों के अलग-अलग किए जाने का कुछ हाल बताया था। बिल्कुल शुरू में जब आदमी सिर्फ शिकार पर बसर करता था, काम बँटे हुए न थे। हर एक आदमी शिकार करता था और मुश्किल से खाने भर को पाता था। पहले पुरुषों और स्त्रियों के बीच में काम बँटना शुरू हुआ होगा, पुरुष शिकार करता होगा और महिला घर में रहकर बच्चों और पालतू जानवरों की निगरानी करती होगी।
जब आदमियों ने खेती करना सीखा तो बहुत-सी नई-नई बातें निकलीं। पहली बात यह हुई कि काम कई हिस्सों में बँट गया। कुछ लोग शिकार खेलते और कुछ खेती करते और हल चलाते। ज्यों-ज्यों दिन गुजरते गए आदमी ने नए-नए पेशे सीखे और उनमें पक्के हो गए।
खेती करने का दूसरा अच्छा नतीजा यह हुआ कि लोग गॉंव और कस्बों में आबाद होने लगे। खेती के पहले लोग इधार-उधार घूमते-फिरते थे और शिकार करते थे। उनके लिए एक जगह रहना जरूरी नहीं था। शिकार हर एक जगह मिल जाता था। इसके सिवाय उन्हें गायों, बकरियों और अपने दूसरे जानवरों की वजह से इधर-उधर घूमना पड़ता था। इन जानवरों को चराने के लिए चरागाह की जरूरत थी। एक जगह कुछ दिनों तक चरने के बाद जमीन में जानवरों के लिए काफी घास न पैदा होती थी और सारी जाति को दूसरी जगह जाना पड़ता था।
जब लोगों को खेती करना आ गया तो उनका जमीन के पास रहना जरूरी हो गया। जमीन को जोत-बो कर वे छोड़ न सकते थे। उन्हें वर्ष भर तक लगातार खेती का काम लगा ही रहता था और इस तरह गॉंव और शहर बन गए।
दूसरी बड़ी बात जो खेती से पैदा हुई वह यह थी कि आदमी की जिंदगी अधिक आराम से कटने लगी। खेती से जमीन में खाना पैदा करना सारे दिन शिकार खेलने से कहीं अधिक आसान था। इसके सिवा जमीन में खाना भी इतना पैदा होता था जितना वह एकदम खा नहीं सकते थे इससे वह हिफाजत से रखते थे। एक और मजे की बात सुनो। जब आदमी निपट शिकारी था तो वह कुछ जमा न कर सकता था या कर भी सकता था तो बहुत कम, किसी तरह पेट भर लेता था। उसके पास बैंक न थे। जहाँ वह अपने रुपए व दूसरी चीजें रख सकता। उसे तो अपना पेट भरने के लिए रोज शिकार खेलना पड़ता था, खेती में उसे एक फसल में जरूरत से अधिक मिल जाता था। इस फालतू खाने को वह जमा कर देता था। इस तरह लोगों ने फालतू अनाज जमा करना शुरू किया। लोगों के पास फालतू खाना इसलिए हो जाता था कि वह उससे कुछ अधिक मेहनत करते थे जितना सिर्फ पेट भरने के लिए जरूरी था। तुम्हें मालूम है कि बैंक खुले हुए हैं जहाँ लोग रुपए जमा करते हैं और चेक लिख कर निकाल सकते हैं। यह रुपया कहाँ से आता है? अगर तुम गौर करो तो तुम्हें मालूम होगा कि यह फालतू रुपया है यानि ऐसा रुपया जिसे लोगों को एकबारगी खर्च करने की जरूरत नहीं है। इसलिए इसे वे बैंक में रखते हैं। वही लोग मालदार हैं जिनके पास बहुत-सा फालतू रुपया है, और जिनके पास कुछ नहीं है वे गरीब हैं। आगे तुम्हें मालूम होगा कि यह फालतू रुपया आता कहाँ से है। इसका सबब यह नहीं है कि आदमी दूसरे से अधिक काम करता है और अधिक कमाता है बल्कि आजकल जो आदमी बिल्कुल काम नहीं करता उसके पास तो बचत होती है और जो पसीना बहाता है उसे खाली हाथ रहना पड़ता है। कितना बुरा इंतजाम है! बहुत-से लोग समझते हैं कि इसी बुरे इंतजाम के सबब से दुनिया में आजकल इतने गरीब आदमी हैं। अभी शायद तुम यह बात समझ न सको इसलिए इसमें सिर न खपाओ। थोड़े दिनों में तुम इसे समझने लगोगी।
इस वक्त तो तुम्हें इतना ही जानना काफी है कि खेती से आदमी को उससे अधिक खाना मिलने लगा जितना वह एकदम खा सकता था। यह जमा कर लिया जाता था। उस जमाने में न रुपए थे न बैंक। जिनके पास बहुत-सी गाएं, भेड़ें, ऊँट या अनाज होता था वही अमीर कहलाते थे।
मुझे भय है कि मेरे पत्र कुछ पेचीदा होते जा रहे हैं। लेकिन अब जिंदगी भी तो पेचीदा हो गई है। पुराने जमाने में लोगों की जिंदगी बहुत सादी थी और अब हम उस जमाने पर आ गए हैं जब जिंदगी पेचीदा होनी शुरू हुई। अगर हम पुरानी बातों को जरा सावधानी के साथ जाँचें और उन तब्दीलियों को समझने की कोशिश करें जो आदमी की जिंदगी और समाज में पैदा होती गईं, तो हमारी समझ में बहुत-सी बातें आ जाएँगी। अगर हम ऐसा न
मुझे भय है कि मेरे पत्र कुछ पेचीदा होते जा रहे हैं। लेकिन अब जिंदगी भी तो पेचीदा हो गई है। पुराने जमाने में लोगों की जिंदगी बहुत सादी थी और अब हम उस जमाने पर आ गए हैं जब जिंदगी पेचीदा होनी शुरू हुई। अगर हम पुरानी बातों को जरा सावधानी के साथ जाँचें और उन तब्दीलियों को समझने की कोशिश करें जो आदमी की जिंदगी और समाज में पैदा होती गईं, तो हमारी समझ में बहुत-सी बातें आ जाएँगी। अगर हम ऐसा न करेंगे तो हम उन बातों को कभी न समझ सकेंगे जो आज दुनिया में हो रही हैं। हमारी हालत उन बच्चों की-सी होगी जो किसी जंगल में रास्ता भूल गए हों। यही सबब है कि मैं तुम्हें ठीक जंगल के किनारे पर लिए चलता हूँ ताकि हम इसमें से अपना रास्ता ढूँढ़ निकालें।
तुम्हें याद होगा कि तुमने मुझसे मसूरी में पूछा था कि बादशाह क्या हैं और वह कैसे बादशाह हो गए। इसलिए हम उस पुराने जमाने पर एक नजर डालेंगे जब राजा बनने शुरू हुए। पहले-पहल वह राजा न कहलाते थे। अगर उनके बारे में कुछ मालूम करना है तो हमें यह देखना होगा कि वे शुरू कैसे हुए।
मैं जातियों के बनने का हाल तुम्हें बता चुका हूँ। जब खेती-बारी शुरू हुई और लोगों के काम अलग-अलग हो गए तो यह जरूरी हो गया कि जाति का कोई बड़ा-बूढ़ा काम को आपस में बाँट दे। इसके पहले भी जातियों में ऐसे आदमी की जरूरत होती थी जो उन्हें दूसरी जातियों से लड़ने के लिए तैयार करे। अक्सर जाति का सबसे बूढ़ा आदमी सरगना होता था। वह जाति का बुजुर्ग कहलाता था। सबसे बूढ़ा होने की वजह से यह समझा जाता था कि वह सबसे अधिक तजरबेदार और होशियार है। यह बुजुर्ग जाति के और आदमियों की ही तरह होता था। वह दूसरों के साथ काम करता था और जितनी खाने की चीजें पैदा होती थीं वे जाति के सब आदमियों में बाँट दी जाती थीं। हर एक चीज जाति की होती थी। आजकल की तरह ऐसा न होता था कि हर एक आदमी का अपना मकान और दूसरी चीजें हों और आदमी जो कुछ कमाता था वह आपस में बाँट लिया जाता था क्योंकि वह सब जाति का समझा जाता था। जाति का बुजुर्ग या सरगना इस बाँट-बखरे का इंतजाम करता था।
लेकिन तब्दीलियाँ बहुत आहिस्ता-आहिस्ता होने लगीं। खेती के आ जाने से नए-नए काम निकल आए। सरगना को अपना बहुत सा वक्त इंतजाम करने में और यह देखने में कि सब लोग अपना-अपना काम ठीक तौर पर करते हैं या नहीं, खर्च करना पड़ता था। धीरे-धीरे सरगना ने जाति के मामूली आदमियों की तरह काम करना छोड़ दिया। वह जाति के और आदमियों से बिल्कुल अलग हो गया। अब काम की बँटाई बिल्कुल दूसरे ढंग की हो गई। सरगना तो इंतजाम करता था और आदमियों को काम करने का हुक्म देता था और दूसरे लोग खेतों में काम करते थे, शिकार करते थे या लड़ाइयों में जाते थे और अपने सरगना के हुक्मों को मानते थे। अगर दो जातियों में लड़ाई ठन जाती तो सरगना और भी ताकतवर हो जाता क्योंकि लड़ाई के जमाने में बगैर किसी अगुआ के अच्छी तरह लड़ना मुमकिन न था। इस तरह सरगना की ताकत बढ़ती गई।
जब इंतजाम करने का काम बहुत बढ़ गया तो सरगना के लिए अकेले सब काम मुश्किल हो गया। उसने अपनी मदद के लिए दूसरे आदमियों को लिया। इंतजाम करनेवाले बहुत-से हो गए। हाँ, उनका अगुआ सरगना ही था। इस तरह जाति दो हिस्सों में बँट गई, इंतजाम करनेवाले और मामूली काम करनेवाले। अब सब लोग बराबर न रहे। जो लोग इंतजाम करते थे उनका मामूली मजदूरों पर दबाव होता था।
अगले पत्र में मैं दिखाऊँगा कि सरगना का अधिकार क्योंकर बढ़ा।
मुझे उम्मीद है कि पुरानी जातियों और उनके बुजुर्गों का हाल तुम्हें रूखा न मालूम होता होगा।
मैंने अपने पिछले पत्र में तुम्हें बताया था कि उस जमाने में हर एक चीज सारी जाति की होती थी। किसी की अलग नहीं। सरगना के पास भी अपनी कोई खास चीज न होती थी। जाति के और आदमियों की तरह उसका भी एक ही हिस्सा होता था। लेकिन वह इंतजाम करनेवाला था और उसका यह काम समझा जाता था कि वह जाति के माल और जायदाद की देख-रेख करता रहे। जब उसका अधिकार बढ़ा तो उसे यह सूझी कि यह माल और असबाब जाति का नहीं, मेरा है। या शायद उसने समझा हो कि वह जाति का सरगना है इसलिए उस जाति का मुख्तार भी है। इस तरह किसी चीज को अपना समझने का खयाल पैदा हुआ। आज हर एक चीज को मेरा-तेरा कहना और समझना मामूली बात है। लेकिन जैसा मैं पहले तुमसे कह चुका हूँ उन पुरानी जातियों के पुरुष और महिला इस तरह खयाल न करते थे। तब हर एक चीज सारी जाति की होती थी। आखिर यह हुआ कि सरगना अपने को ही जाति का मुख्तार समझने लगा। इसलिए जाति का माल व असबाब उसी का हो गया।
जब सरगना मर जाता था तो जाति के सब आदमी जमा हो कर कोई दूसरा सरगना चुनते थे। लेकिन आमतौर पर सरगना के खानदान के लोग इंतजाम के काम को दूसरों से अधिक समझते थे। सरगना के साथ हमेशा रहने और उसके काम में मदद देने की वजह से वे इन कामों को खूब समझ जाते थे। इसलिए जब कोई बूढ़ा सरगना मर जाता, तो जाति के लोग उसी खानदान के किसी आदमी को सरगना चुन लेते थे। इस तरह सरगना का खानदान दूसरे से अलग हो गया और जाति के लोग उसी खानदान से अपना सरगना चुनने लगे। यह तो जाहिर है कि सरगना को बड़े इख्तियार होते थे और वह चाहता था कि उसका बेटा या भाई उसकी जगह सरगना बने। और भरसक इसकी कोशिश करता था। इसलिए वह अपने भाई या बेटे या किसी सगे रिश्तेदार को काम सिखाया करता था जिससे वह उसकी गद्दी पर बैठे। वह जाति के लोगों से कभी-कभी कह भी दिया करता था कि फलां आदमी जिसे मैंने काम सिखा दिया है मेरे बाद सरगना चुना जाए। शुरू में शायद जाति के आदमियों को यह ताकीद अच्छी न लगी हो लेकिन थोड़े ही दिनों में उन्हें उसकी आदत पड़ गई और वे उसका हुक्म मानने लगे। नए सरगना का चुनाव बंद हो गया। बूढ़ा सरगना तय कर देता था कि कौन उसके बाद सरगना होगा और वही होता था।
इससे हमें मालूम हुआ कि सरगना की जगह मौरूसी हो गई यानी उसी खानदान में बाप के बाद बेटा या कोई और रिश्तेदार सरगना होने लगा। सरगना को अब पूरा भरोसा हो गया कि जाति का माल असबब दरअसल मेरा ही है। यहाँ तक कि उसके मर जाने के बाद भी वह उसके खानदान में ही रहता था। अब हमें मालूम हुआ कि मेरा-तेरा का खयाल कैसे पैदा हुआ। शुरू में किसी के दिल में यह बात न थी। सब लोग मिल कर जाति के लिए काम करते थे, अपने लिए नहीं। अगर बहुत-सी खाने की चीजें पैदा करते, तो जाति के हर एक आदमी को उसका हिस्सा मिल जाता था। जाति में अमीर-गरीब का फर्क न था। सभी लोग जाति की जायदाद में बराबर के हिस्सेदार थे।
लेकिन ज्यों ही सरगना ने जाति की चीजों को हड़प करना शुरू किया और उन्हें अपनी कहने लगा, लोग अमीर और गरीब होने लगे। अगले पत्र में इसके बारे में मैं कुछ और लिखूँगा।
बूढ़े सरगना ने हमारा बहुत-सा वक्त ले लिया। लेकिन हम उससे जल्द ही फुर्सत पा जाएंगे या यों कहो उसका नाम कुछ और हो जाएगा। मैंने तुम्हें यह बताने का वायदा किया था कि राजा कैसे हुए और वह कौन थे और राजाओं का हाल समझने के लिए पुराने जमाने के सरगनों का जिक्र जरूरी था। तुमने जान लिया होगा कि यह सरगना बाद को राजा और महाराजा बन बैठे। पहले वह अपनी जाति का अगुआ होता था। अंग्रेजी में उसे
बूढ़े सरगना ने हमारा बहुत-सा वक्त ले लिया। लेकिन हम उससे जल्द ही फुर्सत पा जाएंगे या यों कहो उसका नाम कुछ और हो जाएगा। मैंने तुम्हें यह बताने का वायदा किया था कि राजा कैसे हुए और वह कौन थे और राजाओं का हाल समझने के लिए पुराने जमाने के सरगनों का जिक्र जरूरी था। तुमने जान लिया होगा कि यह सरगना बाद को राजा और महाराजा बन बैठे। पहले वह अपनी जाति का अगुआ होता था। अंग्रेजी में उसे 'पैट्रियार्क' कहते हैं। 'पैट्रियार्क' लैटिन शब्द 'पेटर' से निकला है जिसके माने पिता के हैं। 'पैट्रिया' भी इसी लैटिन शब्द से निकला है जिसके माने हैं 'पितृभूमि'। फ्रांसीसी में उसे 'पात्री' कहते हैं। संस्कृत और हिंदी में हम अपने मुल्क को 'मातृभूमि' कहते हैं। तुम्हें कौन पसंद है? जब सरगना की जगह मौरूसी हो गई या बाप के बाद बेटे को मिलने लगी तो उसमें और राजा में कोई फर्क न रहा। वही राजा बन बैठा और राजा के दिमाग में यह बात समा गई कि मुल्क की सब चीजें मेरी ही हैं। उसने अपने को सारा मुल्क समझ लिया। एक प्रसिद्ध फ्रांसीसी बादशाह ने एक मर्तबा कहा था 'मैं ही राज्य हूँ।' राजा भूल गए कि लोगों ने उन्हें सिर्फ इसलिए चुना है कि वे इंतजाम करें और मुल्क की खाने की चीजें और दूसरे सामान आदमियों में बाँट दें। वे यह भी भूल गए कि वे सिर्फ इसलिए चुने जाते थे कि वह उस जाति या मुल्क में सबसे होशियार और तजरबेकार समझे जाते थे। वे समझने लगे कि हम मालिक हैं और मुल्क के सब आदमी हमारे नौकर हैं। असल में वे ही मुल्क के नौकर थे।
आगे चल कर जब तुम इतिहास पढ़ोगी, तो तुम्हें मालूम होगा कि राजा इतने अभिमानी हो गए कि वे समझने लगे कि प्रजा को उनके चुनाव से कोई वास्ता न था। वे कहने लगे कि हमें ईश्वर ने राजा बनाया है। इसे वे ईश्वर का दिया हुआ हक कहने लगे। बहुत दिनों तक वे यह बेइंसाफी करते रहे और खूब ऐश के साथ राज्य के मजे उड़ाते रहे और उनकी प्रजा भूखों मरती रही। लेकिन आखिरकार प्रजा इसे बरदाश्त न कर सकी और बाज मुल्कों में उन्होंने राजाओं को मार भगाया। तुम आगे चल कर पढ़ोगी कि इंग्लैंड की प्रजा अपने राजा प्रथम चार्ल्स के खिलाफ उठ खड़ी हुई थी, उसे हरा दिया और मार डाला। इसी तरह फ्रांस की प्रजा ने भी एक बड़े हंगामे के बाद यह तय किया कि अब हम किसी को राजा न बनाएँगे। तुम्हें याद होगा कि हम फ्रांस के कौंसियरजेरी कैदखाने को देखने गए थे। क्या तुम हमारे साथ थीं। इसी कैदखाने में फ्रांस का राजा और उसकी रानी मारी आंतांनेत और दूसरे लोग रखे गए थे। तुम रूस की राज्य-क्रांति का हाल भी पढ़ोगी जब रूस की प्रजा ने कई वर्ष हुए अपने राजा को निकाल बाहर किया जिसे 'जार' कहते थे। इससे मालूम होता है कि राजाओं के बुरे दिन आ गए और अब बहुत-से मुल्कों में राजा हैं ही नहीं। फ्रांस, जर्मनी, रूस, स्विट्जरलैंड, अमरीका, चीन और बहुत-से दूसरे मुल्कों में कोई राजा नहीं है। वहाँ पंचायती राज है जिसका मतलब है कि प्रजा समय-समय पर अपने हाकिम और अगुआ चुन लेती है और उनकी जगह मौरूसी नहीं होती।
तुम्हें मालूम है कि इंग्लैंड में अभी तक राजा है लेकिन उसे कोई अधिकार नहीं हैं। वह कुछ कर नहीं सकता। सब इख्तियार पार्लमेंट के हाथ में है जिसमें प्रजा के चुने हुए अगुआ बैठते हैं। तुम्हें याद होगा कि तुमने लंदन में पार्लमेंट देखी थी।
हिंदुस्तान में अभी तक बहुत से राजा, महाराजा और नवाब हैं। तुमने उन्हें भड़कीले कपड़े पहने, कीमती मोटर गाड़ियों में घूमते, अपने ऊपर बहुत-सा रुपया खर्च करते देखा होगा। उन्हें यह रुपया कहाँ से मिलता है? यह रिआया पर टैक्स लगा कर वसूल किया जाता है। टैक्स दिए तो इसलिए जाते हैं कि उससे मुल्क के सभी आदमियों की मदद की जाए, स्कूल और अस्पताल, पुस्तकालय, और अजायबघर खोले जाऍं, अच्छी सड़कें बनाई जाएं और प्रजा की भलाई के लिए और बहुत-से काम किए जाऍं। लेकिन हमारे राजा-महाराजा उसी फ्रांसीसी बादशाह की तरह अब भी यही समझते हैं कि हमीं राज्य हैं और प्रजा का रुपया अपने ऐश में उड़ाते हैं। वे तो इतनी शान से रहते हैं और उनकी प्रजा जो पसीना बहा कर उन्हें रुपया देती है, भूखों मरती है और उनके बच्चों के पढ़ने के लिए मदरसे भी नहीं होते।
मुझे उम्मीद है कि पुरानी जातियों और उनके बुजुर्गों का हाल तुम्हें रूखा न मालूम होता होगा।
मैंने अपने पिछले पत्र में तुम्हें बताया था कि उस जमाने में हर एक चीज सारी जाति की होती थी। किसी की अलग नहीं। सरगना के पास भी अपनी कोई खास चीज न होती थी। जाति के और आदमियों की तरह उसका भी एक ही हिस्सा होता था। लेकिन वह इंतजाम करनेवाला था और उसका यह काम समझा जाता था कि वह जाति के माल और जायदाद की
मुझे उम्मीद है कि पुरानी जातियों और उनके बुजुर्गों का हाल तुम्हें रूखा न मालूम होता होगा।
मैंने अपने पिछले पत्र में तुम्हें बताया था कि उस जमाने में हर एक चीज सारी जाति की होती थी। किसी की अलग नहीं। सरगना के पास भी अपनी कोई खास चीज न होती थी। जाति के और आदमियों की तरह उसका भी एक ही हिस्सा होता था। लेकिन वह इंतजाम करनेवाला था और उसका यह काम समझा जाता था कि वह जाति के माल और जायदाद की देख-रेख करता रहे। जब उसका अधिकार बढ़ा तो उसे यह सूझी कि यह माल और असबाब जाति का नहीं, मेरा है। या शायद उसने समझा हो कि वह जाति का सरगना है इसलिए उस जाति का मुख्तार भी है। इस तरह किसी चीज को अपना समझने का खयाल पैदा हुआ। आज हर एक चीज को मेरा-तेरा कहना और समझना मामूली बात है। लेकिन जैसा मैं पहले तुमसे कह चुका हूँ उन पुरानी जातियों के पुरुष और महिला इस तरह खयाल न करते थे। तब हर एक चीज सारी जाति की होती थी। आखिर यह हुआ कि सरगना अपने को ही जाति का मुख्तार समझने लगा। इसलिए जाति का माल व असबाब उसी का हो गया।
जब सरगना मर जाता था तो जाति के सब आदमी जमा हो कर कोई दूसरा सरगना चुनते थे। लेकिन आमतौर पर सरगना के खानदान के लोग इंतजाम के काम को दूसरों से अधिक समझते थे। सरगना के साथ
हमेशा रहने और उसके काम में मदद देने की वजह से वे इन कामों को खूब समझ जाते थे। इसलिए जब कोई बूढ़ा सरगना मर जाता, तो जाति के लोग उसी खानदान के किसी आदमी को सरगना चुन लेते थे। इस तरह सरगना का खानदान दूसरे से अलग हो गया और जाति के लोग उसी खानदान से अपना सरगना चुनने लगे। यह तो जाहिर है कि सरगना को बड़े इख्तियार होते थे और वह चाहता था कि उसका बेटा या भाई उसकी जगह सरगना बने। और भरसक इसकी कोशिश करता था। इसलिए वह अपने भाई या बेटे या किसी सगे रिश्तेदार को काम सिखाया करता था जिससे वह उसकी गद्दी पर बैठे। वह जाति के लोगों से कभी-कभी कह भी दिया करता था कि फलां आदमी जिसे मैंने काम सिखा दिया है मेरे बाद सरगना चुना जाए। शुरू में शायद जाति के आदमियों को यह ताकीद अच्छी न लगी हो लेकिन थोड़े ही दिनों में उन्हें उसकी आदत पड़ गई और वे उसका हुक्म मानने लगे। नए सरगना का चुनाव बंद हो गया। बूढ़ा सरगना तय कर देता था कि कौन उसके बाद सरगना होगा और वही होता था।
इससे हमें मालूम हुआ कि सरगना की जगह मौरूसी हो गई यानी उसी खानदान में बाप के बाद बेटा या कोई और रिश्तेदार सरगना होने लगा। सरगना को अब पूरा भरोसा हो गया कि जाति का माल असबब दरअसल मेरा ही है। यहाँ तक कि उसके मर जाने के बाद भी वह उसके खानदान में ही रहता था। अब हमें मालूम हुआ कि मेरा-तेरा का खयाल
कैसे पैदा हुआ। शुरू में किसी के दिल में यह बात न थी। सब लोग मिल कर जाति के लिए काम करते थे, अपने लिए नहीं। अगर बहुत-सी खाने की चीजें पैदा करते, तो जाति के हर एक आदमी को उसका हिस्सा मिल जाता था। जाति में अमीर-गरीब का फर्क न था। सभी लोग जाति की जायदाद में बराबर के हिस्सेदार थे।
लेकिन ज्यों ही सरगना ने जाति की चीजों को हड़प करना शुरू किया और उन्हें अपनी कहने लगा, लोग अमीर और गरीब होने लगे। अगले पत्र में इसके बारे में मैं कुछ और लिखूँगा।
सरगनों और राजाओं की चर्चा हम काफी कर चुके। अब हम उस जमाने के रहन-सहन और आदमियों का कुछ हाल लिखेंगे।
हमें उस पुराने जमाने के आदमियों का बहुत अधिक हाल तो मालूम नहीं, फिर भी पुराने पत्थर के युग और नए पत्थर के युग के आदमियों से कुछ अधिक ही मालूम है। आज भी बड़ी-बड़ी इमारतों के खंडहर मौजूद हैं जिन्हें बने हजारों वर्ष हो गए। उन पुरानी इमारतों, मंदिरों और महलों को देख कर हम कुछ अन्दाजा कर
सरगनों और राजाओं की चर्चा हम काफी कर चुके। अब हम उस जमाने के रहन-सहन और आदमियों का कुछ हाल लिखेंगे।
हमें उस पुराने जमाने के आदमियों का बहुत अधिक हाल तो मालूम नहीं, फिर भी पुराने पत्थर के युग और नए पत्थर के युग के आदमियों से कुछ अधिक ही मालूम है। आज भी बड़ी-बड़ी इमारतों के खंडहर मौजूद हैं जिन्हें बने हजारों वर्ष हो गए। उन पुरानी इमारतों, मंदिरों और महलों को देख कर हम कुछ अन्दाजा कर सकते हैं कि वे पुराने आदमी कैसे थे और उन्होंने क्या-क्या काम किए। उन पुरानी इमारतों की संगतराशी और नक्काशी से विशेषकर बड़ी मदद मिलती है। इन पत्थर के कामों से हमें कभी-कभी इसका पता चल जाता है कि वे लोग कैसे कपड़े पहनते थे। और भी बहुत-सी बातें मालूम हो जाती हैं।
हम यह तो ठीक-ठीक नहीं कह सकते कि पहले-पहल आदमी कहाँ आबाद हुए और रहने-सहने के तरीके निकाले। बाज आदमियों का खयाल है कि जहाँ एटलांटिक सागर है वहाँ एटलांटिक नाम का एक बड़ा मुल्क था। कहते हैं कि इस मुल्क में रहनेवालों का रहन-सहन बहुत ऊँचे दरजे का था, लेकिन किसी वजह से सारा मुल्क एटलांटिक सागर में समा गया और अब उसका कोई हिस्सा बाकी नहीं है। लेकिन किस्से कहानियों को छोड़ कर हमारे पास इसका कोई सबूत नहीं है, इसलिए उसका जिक्र करने की जरूरत नहीं।
कुछ लोग यह भी कहते हैं कि पुराने जमाने में अमरीका में ऊँचे दरजे की सभ्यता फैली हुई थी। तुम्हें मालूम है कि कोलंबस को अमरीका का पता लगानेवाला कहा जाता है। लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि कोलम्बस के जाने से पहले अमरीका था ही नहीं। इसका खाली इतना मतलब है कि यूरोपवालों को कोलंबस के पहले उसका पता न था। कोलंबस के जाने के बहुत पहले से वह मुल्क आबाद और सभ्य था। युकेटन में, जो उत्तरी अमरीका के मेक्सिको राज्य में है, और दक्षिनी अमरीका के पेरू राज्य में, पुरानी इमारतों के खंडहर हमें मिलते हैं। इससे इसका यकीन हो जाता है कि बहुत पुराने जमाने में भी पेरू और युकेटन के लोगों में सभ्यता फैली हुई थी। लेकिन उनका और अधिक हाल हमें अब तक नहीं मालूम हो सका। शायद कुछ दिनों के बाद हमें उनके बारे में कुछ और बातें मालूम हों।
यूरोप और एशिया को मिला कर यूरेशिया कहते हैं। यूरेशिया में सबसे पहले मेसोपोटैमिया, मिस्र, क्रीट, हिंदुस्तानी और चीन में सभ्यता फैली। मिस्र अब अफ्रीका में है लेकिन हम इसे यूरेशिया में रख सकते हैं क्योंकि वह इससे बहुत नजदीक है।
पुरानी जातियाँ जो इधर-उधर घूमती-फिरती थीं, जब कहीं आबाद होना चाहती होंगी तो वे कैसे जगह पसंद करती होंगी? वह ऐसी जगह होती होगी जहाँ वे आसानी से खाना पा सकें। उनका कुछ खाना खेती से जमीन में पैदा होता था। और खेती के लिए पानी का होना जरूरी है। पानी न मिले तो खेत सूख जाते हैं और उनमें कुछ नहीं पैदा होता। तुम्हें मालूम है कि जब चौमासे में हिंदुस्तान में काफी बारिश नहीं होती तो अनाज बहुत कम होता है और अकाल पड़ जाता है। गरीब आदमी भूखों मरने लगते हैं। पानी के बगैर काम नहीं चल सकता। पुराने जमाने के आदमियों को ऐसी ही जमीन चुननी पड़ी होगी जहाँ पानी की बहुतायत हो। यही हुआ भी।
मेसोपोटैमिया में वे दजला और फरात इन दो बड़ी नदियों के बीच में आबाद हुए। मिस्र में नील नदी के किनारे। हिंदुस्तान में उनके करीब-करीब सभी शहर सिंधु, गंगा, जमुना इत्यादि बड़ी-बड़ी नदियों के किनारे आबाद हुए। पानी उनके लिए इतना जरूरी था कि वे इन नदियों को देवता समझने लगे जो उन्हें खाना और आराम की दूसरी चीजें देता था। मिस्र में नील को 'पिता नील' कहते थे और उसकी पूजा करते थे। हिंदुस्तान में गंगा की पूजा होने लगी और अब तक उसे पवित्र समझा जाता है। लोग उसे 'गंगा माई' कहते हैं और तुमने यात्रियों को 'गंगा माई की जय' का शोर मचाते सुना होगा। यह समझना मुश्किल नहीं है कि क्यों वे नदियों की पूजा करते थे, क्योंकि नदियों से उनके सभी काम निकलते थे। उनसे सिर्फ पानी ही न मिलता था, अच्छी मिट्टी और बालू भी मिलती थी जिससे उनके खेत उपजाऊ हो जाते थे। नदी ही के पानी और मिट्टी से तो अनाज के ढेर लग जाते थे, फिर वे नदियों को क्यों न 'माता' और 'पिता' कहते। लेकिन आदमियों की आदत है कि असली सबब को भूल जाते हैं। वे बिना सोचे-समझे लकीर पीटते चले जाते हैं। हमें याद रखना चाहिए कि नील और गंगा की बड़ाई सिर्फ इसलिए है कि उनसे आदमियों को अनाज और पानी मिलता है।
मैं लिख चुका हूँ कि आदमियों ने पहले-पहल बड़ी-बड़ी नदियों के पास और उपजाऊ घाटियों में बस्तियाँ बनाईं जहाँ उन्हें खाने की चीजें और पानी बहुतायत से मिल सकता था। उनके बड़े-बड़े शहर नदियों के किनारे पर थे। तुमने इनमें से बाज प्रसिद्ध शहरों का नाम सुना होगा। मेसोपोटैमिया में बाबुल, नेनुवा, और असुर नाम के शहर थे। लेकिन इनमें से किसी शहर का अब पता नहीं है। हाँ, अगर बालू या मिट्टी में गहरी
मैं लिख चुका हूँ कि आदमियों ने पहले-पहल बड़ी-बड़ी नदियों के पास और उपजाऊ घाटियों में बस्तियाँ बनाईं जहाँ उन्हें खाने की चीजें और पानी बहुतायत से मिल सकता था। उनके बड़े-बड़े शहर नदियों के किनारे पर थे। तुमने इनमें से बाज प्रसिद्ध शहरों का नाम सुना होगा। मेसोपोटैमिया में बाबुल, नेनुवा, और असुर नाम के शहर थे। लेकिन इनमें से किसी शहर का अब पता नहीं है। हाँ, अगर बालू या मिट्टी में गहरी खुदाई होती है तो कभी-कभी उनके खंडहर मिल जाते हैं। इन हजारों बरसों में वे पूरी तरह मिट्टी और बालू से ढक गए और उनका कोई निशान भी नहीं मिलता। बाज जगहों में इन ढके हुए शहरों के ठीक ऊपर नए शहर बस गए। जो लोग इन पुराने शहरों की खोज कर रहे हैं उन्हें गहरी खुदाई करनी पड़ी है और कभी-कभी तले ऊपर कई शहर मिले हैं। यह बात नहीं है कि ये शहर एक साथ ही तले ऊपर रहे हों। एक शहर सैकड़ों वर्षों तक आबाद रहा होगा, लोग वहाँ पैदा हुए होंगे और मरे होंगे और कई पुश्तों तक यही सिलसिला जारी रहा होगा। धीरे-धीरे शहर की आबादी घटने लगी होगी और वह वीरान हो गया होगा। आखिर वहाँ कोई न रह गया होगा और शहर मलबे का एक ढेर बन गया होगा। तब उस पर बालू और गर्द जमने लगी होगी और यह शहर उसके नीचे ढक गए होंगे क्योंकि कोई आदमी सफाई करनेवाला न था। एक मुद्दत के बाद सारा शहर बालू और मिट्टी से ढक गया होगा और लोगों को इस बात की याद भी न रही होगी कि यहाँ कोई शहर था। सैकड़ों वर्ष गुजर गए होंगे तब नए आदमियों ने आ कर नया शहर बसाया होगा और यह नया शहर भी कुछ दिनों के बाद पुराना हो गया होगा। लोगों ने उसे छोड़ दिया होगा और वह भी वीरान हो गया होगा। एक जमाने के बाद वह भी बालू और धूल के नीचे गायब हो गया होगा। यही सबब है कि कभी-कभी हमें कई शहरों के खंडहर ऊपर-नीचे मिलते हैं। यह हालत विशेषकर बलुई जगहों में हुई होगी क्योंकि बालू हर एक चीज पर जल्दी जम जाती है।
कितनी अजीब बात है कि एक के बाद दूसरे शहर बनें, पुरुषों, स्त्रियों और बच्चों के जमघटों से गुलजार हों और तब धीरे-धीरे उजड़ जाऍं और जहाँ यह पुराने शहर थे वहाँ नए शहर बसें और नए-नए आदमी आ कर वहाँ आबाद हों। फिर उनका भी खात्मा हो जाए और शहर का कोई निशान न रहे। मैं तो इन शहरों का हाल दो-चार वाक्यों में लिख रहा हूँ, लेकिन सोचो कि इन शहरों के बनने और बिगड़ने और उनकी जगह नए शहरों के बनने में कितने युग बीत गए होंगे। जब कोई आदमी सत्तर या अस्सी वर्ष का हो जाता है, तो हम उसे बुड्ढा कहते हैं। लेकिन उन हजारों बरसों के सामने सत्तर या अस्सी वर्ष क्या हैं? जब ये शहर रहे होंगे तो उनमें कितने छोटे-छोटे बच्चे-बूढ़े हो कर मर गए होंगे और कई पीढ़ियाँ गुजर गई होंगी और अब बाबुल और नेनुवा का सिर्फ नाम बाकी रह गया है। एक दूसरा बहुत पुराना शहर दमिश्क था। लेकिन दमिश्क वीरान नहीं हुआ। वह अब तक मौजूद है और बड़ा शहर है। कुछ लोगों का खयाल है कि दमिश्क दुनिया का सबसे पुराना शहर है। हिंदुस्तान में भी बड़े-बड़े शहर नदियों के किनारे ही पर हैं। सबसे पुराने शहरों में एक का नाम इंद्रप्रस्थ था जो कहीं दिल्ली के आसपास था, लेकिन इंद्रप्रस्थ का अब निशान भी नहीं है। बनारस या काशी भी बड़ा पुराना शहर है, शायद दुनिया के सबसे पुराने शहरों में हो। इलाहाबाद, कानपुर और पटना और बहुत-से दूसरे शहर जो तुम्हें खुद याद होंगे नदियों ही के किनारे हैं। लेकिन ये बहुत पुराने नहीं हैं। हाँ, प्रयाग या इलाहाबाद और पटना जिसका पुराना नाम पाटलिपुत्रा था कुछ पुराने हैं।
इसी तरह चीन में भी पुराने शहर हैं।
पुराने जमाने में शहरों और गाँवों में किस तरह के लोग रहते थे? उनका कुछ हाल उनके बनाए हुए बड़े-बड़े मकानों और इमारतों से मालूम होता है। कुछ हाल उन पत्थर की तख्तियों की लिखावट से भी मालूम होता है जो वे छोड़ गए हैं। इसके अलावा कुछ बहुत पुरानी पुस्तकें भी हैं जिनसे उस पुराने जमाने का बहुत कुछ हाल मालूम हो जाता है।
मिस्र में अब भी बड़े-बड़े मीनार और स्फिंग्स मौजूद हैं। लक्सर और दूसरी
पुराने जमाने में शहरों और गाँवों में किस तरह के लोग रहते थे? उनका कुछ हाल उनके बनाए हुए बड़े-बड़े मकानों और इमारतों से मालूम होता है। कुछ हाल उन पत्थर की तख्तियों की लिखावट से भी मालूम होता है जो वे छोड़ गए हैं। इसके अलावा कुछ बहुत पुरानी पुस्तकें भी हैं जिनसे उस पुराने जमाने का बहुत कुछ हाल मालूम हो जाता है।
मिस्र में अब भी बड़े-बड़े मीनार और स्फिंग्स मौजूद हैं। लक्सर और दूसरी जगहों में बहुत बड़े मंदिरों के खंडहर नजर आते हैं। तुमने इन्हें देखा नहीं है लेकिन जिस वक्त हम स्वेज़ नहर से गुजर रहे थे, वे हमसे बहुत दूर न थे। लेकिन तुमने उनकी तस्वीरें देखी हैं। शायद तुम्हारे पास उनकी तस्वीरों के पोस्टकार्ड मौजूद हों। स्फिंग्स महिला के सिरवाली शेर की मूर्ति को कहते हैं। इसका डील-डौल बहुत बड़ा है। किसी को यह नहीं मालूम कि यह मूर्ति क्यों बनाई गई और उसका क्या मतलब है। उस महिला के चेहरे पर एक अजीब मुरझाई हुई मुस्कराहट है। और किसी की समझ में नहीं आता कि वह क्यों मुस्करा रही है। किसी आदमी के बारे में यह कहना कि वह स्फिंग्स की तरह है इसका यह मतलब है कि तुम उसे बिल्कुल नहीं समझते।
मीनार भी बहुत लंबे-चौड़े हैं। दरअसल, वे मिस्र के पुराने बादशाहों के मकबरे हैं जिन्हें फिरऊन कहते थे। तुम्हें याद है कि तुमने लंदन के अजायबघर में मिस्र की ममी देखी थी? ममी किसी आदमी या जानवर की लाश को कहते हैं जिसमें कुछ ऐसे तेल और मसाले लगा दिए गए हों कि वह सड़ न सके। फिरऊनों की लाशों की ममी बना दी जाती थीं और तब उन बड़े-बड़े मीनारों में रख दी जाती थीं। लाशों के पास सोने और चॉंदी के गहने और सजावट की चीजें और खाना रख दिया जाता था। क्योंकि लोग खयाल करते थे कि शायद मरने के बाद उन्हें इन चीजों की जरूरत हो। दो-तीन वर्ष हुए कुछ लोगों ने इनमें से एक मीनार के अंदर एक फिरऊन की लाश पाई जिसका नाम तूतन खामिन था। उसके पास बहुत-सी खूबसूरत और कीमती चीजें रखी हुई मिलीं।
उस जमाने में मिस्र में खेती को सींचने के लिए अच्छी-अच्छी नहरें और झीलें बनाई जाती थीं। मेरीडू नाम की झील खास तौर पर प्रसिद्ध थी। इससे मालूम होता है कि पुराने जमाने के मिस्र के रहनेवाले कितने होशियार थे और उन्होंने कितनी तरक्की की थी। इन नहरों और झीलों और बड़े-बड़े मीनारों को अच्छे-अच्छे इंजीनियरों ने ही तो बनाया होगा।
केंडिया या क्रीट एक छोटा-सा टापू है जो भूमध्य सागर में है। सईद बंदर-गाह से वेनिस जाते वक्त हम उस टापू के पास से हो कर निकले थे। उस छोटे-से टापू में उस पुराने जमाने में बहुत अच्छी सभ्यता पाई जाती थी। नोसोज में एक बहुत बड़ा महल था और उसके खंडहर अब तक मौजूद हैं। इस महल में गुसलखाने थे और पानी की नलें भी थीं। जिन्हें नादान लोग नए जमाने की निकली हुई चीज समझते हैं। इसके अलावा बहुत खूबसूरत मिट्टी के बर्तन, पत्थर की नक्काशी, तस्वीरें और धातु और हाथी दाँत के बारीक काम भी होते थे। इस छोटे-से टापू में लोग शांति से रहते थे और उन्होंने खूब तरक्की की थी।
तुमने मीदास बादशाह का हाल पढ़ा होगा जिसकी निस्बत प्रसिद्ध है कि जिस चीज को वह छू लेता था वह सोना हो जाती थी। वह खाना न खा सकता था क्योंकि खाना सोना हो जाता था और सोना तो खाने की चीज नहीं। उसके लालच की उसे यह सजा दी गई थी। यह है तो एक मजेदार कहानी, लेकिन इससे हमें यह मालूम होता है कि सोना इतनी अच्छी और लाभदायक चीज नहीं है जितनी लोग खयाल करते हैं। क्रीट के सब राजा मीदास कहलाते थे और यह कहानी उन्हीं में से किसी राजा की होगी।
क्रीट की एक और कथा है जो शायद तुमने तुमने सुनी हो। वहाँ मैनोटार नाम का एक देव था जो आधा आदमी और आधा बैल था। कहा जाता है कि जवान आदमी और लड़कियाँ, उसे खाने को दी जाती थीं। मैं तुमसे पहले ही कह चुका हूँ कि धर्म का खयाल शुरू में किसी अनजानी चीज के भय से पैदा हुआ। लोगों को प्रकृति का कुछ ज्ञान न था, न उन बातों को समझते थे जो दुनिया में बराबर होती रहती थीं। इसलिए भय के मारे वे बहुत-सी बेवकूफी की बातें किया करते थे। यह बहुत मुमकिन है कि लड़के और लड़कियों का यह बलिदान किसी देव को न किया जाता हो बल्कि वह महज खयाली देव हो क्योंकि मैं समझता हूँ ऐसा देव कभी हुआ ही नहीं।
उस पुराने जमाने में सारे संसार में पुरुषों-स्त्रियों का फर्जी देवताओं के लिए बलिदान किया जाता था। यही उनकी पूजा का ढंग था। मिस्र में लड़कियाँ नील नदी में डाल दी जाती थीं। लोगों का खयाल था कि इससे पिता नील खुश होंगे।
बड़ी खुशी की बात है कि अब आदमियों का बलिदान नहीं किया जाता; हाँ, शायद दुनिया के किसी कोने में कभी-कभी हो जाता हो। लेकिन अब भी ईश्वर को खुश करने के लिए जानवरों का बलिदान किया जाता है। किसी की पूजा करने का यह कितना अनोखा ढंग है!
हम लिख चुके हैं कि शुरू में मेसोपोटैमिया, मिस्र और भूमध्य सागर के छोटे-से टापू क्रीट में सभ्यता शुरू हुई और फैली। उसी जमाने में चीन और हिंदुस्तान में भी ऊँचे दरजे की सभ्यता शुरू हुई अपने ढंग से फैली।
दूसरी जगहों की तरह चीन में भी लोग बड़ी नदियों की घाटियों में आबाद हुए। यह उस जाति के लोग थे जिन्हें मंगोल कहते हैं। वे पीतल के खूबसूरत बर्तन बनाते थे और कुछ दिनों बाद लोहे के बर्तन
हम लिख चुके हैं कि शुरू में मेसोपोटैमिया, मिस्र और भूमध्य सागर के छोटे-से टापू क्रीट में सभ्यता शुरू हुई और फैली। उसी जमाने में चीन और हिंदुस्तान में भी ऊँचे दरजे की सभ्यता शुरू हुई अपने ढंग से फैली।
दूसरी जगहों की तरह चीन में भी लोग बड़ी नदियों की घाटियों में आबाद हुए। यह उस जाति के लोग थे जिन्हें मंगोल कहते हैं। वे पीतल के खूबसूरत बर्तन बनाते थे और कुछ दिनों बाद लोहे के बर्तन भी बनाने लगे। उन्होंने नहरें और अच्छी-अच्छी इमारतें बनाईं, और लिखने का एक नया ढंग निकाला। यह लिखावट हिंदी, उर्दू या अंग्रेजी से बिल्कुल नहीं मिलती। यह एक किस्म की तस्वीरदार लिखावट थी। हर एक शब्द और कभी-कभी छोटे-छोटे जुमलों की भी तस्वीर होती थी। पुराने जमाने में मिस्र, क्रीट और बाबुल में भी तस्वीरदार लिखावट होती थी। उसे अब चित्रलिपि कहते हैं। तुमने यह लिखावट अजायबघर की बाज किताबों में देखी होगी। मिस्र और पश्चिम के मुल्कों में यह लिखावट सिर्फ बहुत पुरानी इमारतों में पाई जाती है। उन मुल्कों में भी इस लिखावट का बहुत दिनों से रिवाज नहीं रहा। लेकिन चीन में अब भी एक किस्म की तस्वीरदार लिखावट मौजूद है और ऊपर से नीचे को लिखी जाती है। अंग्रेजी या हिंदी की तरह बाएँ से दाईं तरफ या उर्दू की तरह दाहिनी से बाईं तरफ नहीं।
हिंदुस्तान में बहुत-सी पुराने जमाने की इमारतों के खंडहर शायद अभी तक जमीन में नीचे दबे पड़े हैं। जब तक उन्हें कोई खोद न निकाले तब तक हमें उनका पता नहीं चलता। लेकिन उत्तर में बाज बहुत पुराने खंडहरों की खुदाई हो चुकी है। यह तो हमें मालूम ही है कि बहुत पुराने जमाने में जब आर्य लोग हिंदुस्तान में आए तो यहाँ द्रविड़ जाति के लोग रहते थे। और उनकी सभ्यता भी ऊँचे दरजे की थी। वे दूसरे मुल्कवालों के साथ व्यापार करते थे। वे अपनी बनाई हुई बहुत-सी चीजें मेसोपोटैमिया और मिस्र में भेजा करते थे। समुद्री रास्ते से वे विशेषकर चावल और मसाले और साखू की इमारती लकड़ियाँ भी भेजा करते थे। कहा जाता है कि मैसोपोटैमिया के 'उर' नामी शहर के बहुत से पुराने महल दक्षिणी हिंदुस्तान से आई हुई साखू की लकड़ी के बने हुए थे। यह भी कहा जाता है कि सोना, मोती, हाथीदाँत, मोर और बंदर हिंदुस्तान से पश्चिम के मुल्कों को भेजे जाते थे। इससे मालूम होता है कि उस जमाने में हिंदुस्तान और दूसरे मुल्कों में बहुत व्यापार होता था। व्यापार तभी बढ़ता है जब लोग सभ्य होते हैं।
उस जमाने में हिंदुस्तान और चीन में छोटी-छोटी रियासतें या राज्य थे। इनमें से किसी मुल्क में भी एक राज्य न था। हर एक छोटा शहर, जिसमें कुछ गॉंव और खेत होते थे, एक अलग राज्य होता था। ये शहरी रियासतें कहलाती हैं। उस पुराने जमाने में भी इनमें से बहुत-सी रियासतों में पंचायती राज्य था। बादशाह न थे, राज्य का इंतजाम करने के लिए चुन हुए आदमियों की एक पंचायत होती थी। फिर भी बाज रियासतों में राजा का राज्य था। गोकि इन शहरी रियासतों की सरकारें अलग होती थी, लेकिन कभी-कभी वे एक दूसरे की मदद किया करती थीं, कभी-कभी एक बड़ी रियासत कई छोटी रियासतों की अगुआ बन जाती थी।
चीन में कुछ ही दिनों बाद इन छोटी-छोटी रियासतों की जगह एक बहुत बड़ा राज्य हो गया। इसी राज्य के जमाने में चीन की बड़ी दीवार बनाई गई थी। तुमने इस बड़ी दीवार का हाल पढ़ा है। वह कितनी अजीबोगरीब चीज है। वह समुद्र के किनारे से ऊँचे-ऊँचे पहाड़ों तक बनाई गई थी, ताकि मंगोल जाति के लोग चीन में घुस कर न आ सकें। यह दीवार चौदह सौ मील लंबी, बीस से तीस फुट तक ऊँची और पच्चीस फुट चौड़ी है। थोड़ी-थोड़ी दूर पर किले और बुर्ज हैं। अगर ऐसी दीवार हिंदुस्तान में बने तो वह उत्तर में लाहौर से लेकर दक्षिण में मद्रास तक चली जाएगी। वह दीवार अब भी मौजूद है और अगर तुम चीन जाओ तो उसे देख सकती हो।
फिनीशियन भी पुराने जमाने की एक सभ्य जाति थी। उसकी नस्ल भी वही थी जो यहूदियों और अरबों की है। वे विशेषकर एशिया माइनर के पश्चिमी किनारे पर रहते थे, जो आजकल का तुर्की है। उनके खास-खास शहर एकर, टायर और सिडोन भूमध्य समुद्र के किनारे पर थे। वे व्यापार के लिए लंबे सफर करने में प्रसिद्ध थे। वे भूमध्य समुद्र से होते हुए सीधे इंग्लैंड तक चले जाते थे। शायद वे हिंदुस्तान भी आए हों।
अब
फिनीशियन भी पुराने जमाने की एक सभ्य जाति थी। उसकी नस्ल भी वही थी जो यहूदियों और अरबों की है। वे विशेषकर एशिया माइनर के पश्चिमी किनारे पर रहते थे, जो आजकल का तुर्की है। उनके खास-खास शहर एकर, टायर और सिडोन भूमध्य समुद्र के किनारे पर थे। वे व्यापार के लिए लंबे सफर करने में प्रसिद्ध थे। वे भूमध्य समुद्र से होते हुए सीधे इंग्लैंड तक चले जाते थे। शायद वे हिंदुस्तान भी आए हों।
अब हमें दो बड़ी-बड़ी बातों की दिलचस्प शुरुआत का पता चलता है। समुद्री यात्रा और व्यापार। आजकल की तरह उस जमाने में अच्छे अगिनवोट और जहाज न थे। सबसे पहली नाव किसी वृक्ष के तने को खोखला कर बनी होगी। इनके चलने के लिए डंडों से काम लिया जाता था और कभी-कभी हवा के जोर के लिए तिरपाल लगा देते थे। उस जमाने में समुद्र की यात्रा बहुत दिलचस्प और भयानक रही होंगी। अरब सागर को एक छोटी-सी किश्ती पर, जो डंडों और पालों से चलती, तय करने का खयाल तो करो। उनमें चलने-फिरने के लिए बहुत कम जगह रहती होगी और हवा का एक हलका-सा झोंका भी उसे तले ऊपर कर देता है। अक्सर वह डूब भी जाती थी। खुले समुद्र में एक छोटी-सी किश्ती पर निकलना बहादुरों ही का काम था। उसमें बड़े-बड़े पत्ररे थे और उनमें बैठनेवाले आदमियों को महीनों तक जमीन के दर्शन न होते थे। अगर खाना कम पड़ जाता था तो उन्हें बीच समुद्र में कोई चीज न मिल सकती थी, जब तक कि वे किसी मछली या चिड़िया का शिकार न करें। समुद्र पत्ररों और जोखिम से भरा हुआ था। पुराने जमाने के मुसाफिरों को जो पत्ररे पेश आते थे उसका बहुत कुछ हाल किताबों में मौजूद है।
लेकिन इस जोखिम के होते हुए भी लोग समुद्री सफर करते थे। मुमकिन है कुछ लोग इसलिए सफर करते हों कि उन्हें बहादुरी के काम पसंद थे; लेकिन अधिकतर लोग सोने और दौलत के लालच से सफर करते थे। वे व्यापार करने जाते थे; माल खरीदते थे और बेचते थे; और धन कमाते थे। व्यापार क्या है? आज तुम बड़ी-बड़ी दुकानें देखती हो और उनमें जा कर अपनी जरूरत की चीज खरीद लेना कितना सहज है। लेकिन क्या तुमने ध्यान दिया है कि जो चीजें तुम खरीदती हो वे आती कहाँ से हैं? तुम इलाहाबाद की एक दुकान में एक शाल खरीदती हो। वह कश्मीर से यहाँ तक सारा रास्ता तय करता हुआ आया होगा और ऊन कश्मीर और लद्दाख की पहाड़ियों में भेड़ों की खाल पर पैदा हुआ होगा। दाँत का मंजन जो तुम खरीदती हो शायद जहाज और रेलगाड़ियों पर होता हुआ अमरीका से आया हो। इसी तरह चीन, जापान, पेरिस या लंदन की बनी हुई चीजें भी मिल सकती हैं। विलायती कपड़े के एक छोटे-से टुकड़े को ले लो जो यहाँ बाजार में बिकता है। रुई पहले हिंदुस्तान में पैदा हुई और इंग्लैंड भेजी गई। एक बड़े कारखाने ने इसे खरीदा, साफ किया, उसका सूत बनाया और तब कपड़ा तैयार किया। यह कपड़ा फिर हिंदुस्तान आया और बाजार में बिकने लगा। बाजार में बिकने के पहले इसे लौटा-फेरी में कितने हजार मीलों का सफर करना पड़ा। यह नादानी की बात मालूम होती है कि हिंदुस्तान में पैदा होनेवाली रुई इतनी दूर इंग्लैंड भेजी जाए, वहाँ उसका कपड़ा बने और फिर हिंदुस्तान में आए। इसमें कितना वक्त, रुपया और मेहनत बरबाद हो जाती है। अगर रुई का कपड़ा हिंदुस्तान में ही बने तो वह जरूर अधिक सस्ता और अच्छा होगा। तुम जानती हो कि हम विलायती कपड़े नहीं खरीदते। हम खद्दर पहनते हैं क्योंकि जहाँ तक मुमकिन हो अपने मुल्क में पैदा होनेवाली चीजों को खरीदना अक्लमंदी की बात है। हम इसलिए भी खद्दर खरीदते और पहनते हैं कि उससे उन गरीब आदमियों की मदद होती है जो उसे कातते और बुनते हैं।
अब तुम्हें मालूम हो गया होगा कि आजकल व्यापार कितनी पेचीदा चीज है। बड़े-बड़े जहाज एक मुल्क का माल दूसरे देश को पहुँचाते रहते हैं। लेकिन पुराने जमाने में यह बात न थी।
जब हम पहले-पहल किसी एक जगह आबाद हुए तो हमें व्यापार करना बिल्कुल न आता था। आदमी को अपनी जरूरत की चीजें आप बनानी पड़ती थीं। यह सच है कि उस वक्त आदमी को बहुत चीजों की जरूरत न थी। जैसा तुमसे पहले कह चुका हूँ। उसके बाद जाति में काम बॉंटा जाने लगा। लोग तरह-तरह के काम करने लगे और तरह-तरह की चीजें बनाने लगे। कभी-कभी ऐसा होता होगा कि एक जाति के पास एक चीज अधिक होती होगी और दूसरी जाति के पास दूसरी चीज। इसलिए अपनी-अपनी चीजों को बदल लेना उनके लिए बिल्कुल सीधी बात थी। मिवर्ष के तौर पर एक जाति एक बोरे चने पर एक गाय देती होगी। उस जमाने में रुपया न था। चीजों का सिर्फ बदला होता था। इस तरह बदला शुरू हुआ। इसमें कभी-कभी दिक्कत पैदा होती होगी। एक बोरे चने या इसी तरह की किसी दूसरी चीज के लिए एक आदमी को एक गाय या दो भेड़ें ले जानी पड़ती होंगी लेकिन फिर भी व्यापार तरक्की करता रहा।
जब सोना और चाँदी निकलने लगा तो लोगों ने उसे व्यापार के लिए काम में लाना शुरू किया। उन्हें ले जाना अधिक आसान था। और धीरे-धीरे माल के बदले में सोने या चाँदी देने का रिवाज निकल पड़ा। जिस आदमी को पहले-पहल यह बात सूझी होगी वह बहुत होशियार होगा। सोने-चॉंदी के इस तरह काम में लाने से व्यापार करना बहुत आसान हो गया। लेकिन उस वक्त भी आजकल की तरह सिक्के न थे। सोना तराजू पर तौल कर दूसरे आदमी को दे दिया जाता था। उसके बहुत दिनों के बाद सिक्के का रिवाज हुआ और इससे व्यापार और बदले में और भी सुभीता हो गया। तब तौलने की जरूरत न रही क्योंकि सभी आदमी सिक्के की कीमत जानते थे। आजकल सब जगह सिक्के का रिवाज है। लेकिन हमें याद रखना चाहिए कि निरा रुपया हमारे किसी काम का नहीं है। यह हमें अपनी जरूरत की दूसरी चीजों के लेने में मदद देता है। इससे चीजों का बदलना आसान हो जाता है। तुम्हें राजा मीदास का किस्सा याद होगा जिसके पास सोना तो बहुत था लेकिन खाने को कुछ नहीं। इसलिए रुपया बेकार है। जब तक हम उससे जरूरत की चीजें न खरीद लें।
मगर आजकल भी तुम्हें देहातों में ऐसे लोग मिलेंगे जो सचमुच चीजों का बदला करते हैं और दाम नहीं देते। लेकिन आम तौर पर रुपया काम में लाया जाता है क्योंकि इसमें बहुत अधिक सुभीता है। बाज नादान लोग समझते हैं कि रुपया खुद ही बहुत अच्छी चीज है और वह उसे खर्च करने के बदले बटोरते और गाड़ते हैं। इससे मालूम हो जाता है कि उन्हें यह नहीं मालूम है कि रुपए का रिवाज कैसे पड़ा और यह दरअसल क्या है।
हम तरह-तरह की भाषाओं का पहले ही जिक्र कर चुके हैं और दिखा चुके हैं कि उनका आपस में क्या नाता है। आज हम यह विचार करेंगे कि लोगों ने बोलना क्यों सीखा।
हमें मालूम है कि जानवरों की भी कुछ बोलियाँ होती हैं। लोग कहते हैं कि बंदरों में थोड़ी-सी मामूली चीजों के लिए शब्द या बोलियॉं मौजूद हैं। तुमने बाज जानवरों की अजीब आवाजें भी सुनी होंगी जो वे भय जाने पर और अपने भाई- बंदों को किसी पत्ररे की
हम तरह-तरह की भाषाओं का पहले ही जिक्र कर चुके हैं और दिखा चुके हैं कि उनका आपस में क्या नाता है। आज हम यह विचार करेंगे कि लोगों ने बोलना क्यों सीखा।
हमें मालूम है कि जानवरों की भी कुछ बोलियाँ होती हैं। लोग कहते हैं कि बंदरों में थोड़ी-सी मामूली चीजों के लिए शब्द या बोलियॉं मौजूद हैं। तुमने बाज जानवरों की अजीब आवाजें भी सुनी होंगी जो वे भय जाने पर और अपने भाई- बंदों को किसी पत्ररे की खबर देने के लिए मुँह से निकालते हैं। शायद इसी तरह आदमियों में भी भाषा की शुरुआत हुई। शुरू में बहुत सीधी-सादी आवाजें रही होंगी। जब वे किसी चीज को देख कर भय जाते होंगे और दूसरों को उसकी खबर देना चाहते होंगे तो वे खास तरह की आवाज निकालते होंगे। शायद इसके बाद मजदूरों की बोलियॉं शुरू हुईं। जब बहुत-से आदमियों को कोई चीज खींचते या कोई भारी बोझ उठाते नहीं देखा है? ऐसा मालूम होता है कि एक साथ हाँक लगाने से उन्हें कुछ सहारा मिलता है। यही बोलियॉं पहले-पहल आदमी के मुँह से निकली होंगी।
धीरे-धीरे और शब्द बनते गए होंगे जैसे पानी, आग, घोड़ा, भालू। पहले शायद सिर्फ नाम ही थे, क्रियाएँ न थीं। अगर कोई आदमी यह कहना चाहता होगा कि मैंने भालू देखा है तो वह एक शब्द ''भालू'' कहता होगा और बच्चों की तरह भालू की तरफ इशारा करता होगा। उस वक्त लोगों में बहुत कम बातचीत होती होगी।
धीरे-धीरे भाषा तरक्की करने लगी। पहले छोटे-छोटे वाक्य पैदा हुए, फिर बड़े-बड़े। किसी जमाने में भी शायद सभी जातियों की एक ही भाषा न थी। लेकिन कोई जमाना ऐसा जरूर था जब बहुत सी तरह-तरह की भाषाएँ न थीं। मैं तुमसे कह चुका हूँ कि तब थोड़ी-सी भाषाएँ थीं। मगर बाद को, उन्हीं में से हर एक की कई-कई शाखाएँ पैदा हो गई।
सभ्यता शुरू होने के जमाने तक, जिसका हम जिक्र कर रहे हैं भाषा ने बहुत तरक्की कर ली थी। बहुत-से गीत बन गए थे और भाट व गवैये उन्हें गाते थे। उस जमाने में न लिखने का बहुत रिवाज था और न बहुत पुस्तकें थीं। इसलिए लोगों को अब से कहीं अधिक बातें याद रखनी पड़ती थीं। तुकबंदियों और छंदों को याद रखना जयादा सहल है। यही सबब है कि उन मुल्कों में जहाँ पुराने जमाने में सभ्यता फैली हुई थी, तुकबंदियों और लड़ाई के गीतों का बहुत रिवाज था।
भाटों और गवैयों को मरे हुए वीरों की बहादुरी के गीत बहुत अच्छे लगते थे। उस जमाने में आदमी की जिंदगी का खास काम लड़ना था, इसलिए उनके गीत भी लड़ाइयों ही के हैं। हिंदुस्तान ही नहीं, दूसरे मुल्कों में भी, यही रिवाज था।
लिखने की शुरुआत भी बहुत मजेदार है। मैं चीनी लिखावट का बयान कर चुका हूँ। सभी में लिखना तस्वीरों से शुरू हुआ होगा। जो आदमी मोर के बारे में कुछ कहना चाहता होगा, उसे मोर की तस्वीर का खाका बनाना पड़ता होगा। हाँ, इस तरह कोई बहुत अधिक न लिख सकता होगा। धीरे-धीरे तस्वीरें सिर्फ निशानियाँ रह गई होंगी। इसके बहुत दिनों पीछे वर्णमाला निकली होगी और उसका रिवाज हुआ होगा। इससे लिखना बहुत सहल हो गया और जल्दी-जल्दी तरक्की होने लगी।
अदद और गिनती का निकलना भी बड़े मार्के की बात रही होगी। गिनती के बगैर कोई रोजगार करने का खयाल भी नहीं किया जा सकता। जिस आदमी ने गिनती निकाली वह बड़ा दिमागवाला या बहुत होशियार आदमी रहा होगा। यूरोप में पहले अंक बहुत बेढंगे थे। रोमन अंकों को तुम जानती हो प्ए प्प्ए प्प्प्ए प्टए टए टप्ए टप्प्ए टप्प्प्ए प्ग्ए ग् इत्यादि। ये बहुत बेढंगे हैं और इन्हें काम में लाना मुश्किल है। आजकल हम, हर एक भाषा में, जिन अंकों को काम में लाते हैं वे बहुत अच्छे हैं। मैं 1, 2, 3, 4, 5, 6, 7, 8, 9, 10 वगैरह अंकों को कह रहा हूँ। इन्हें अरबी अंक कहते हैं क्योंकि यूरोपवालों ने उन्हें अरब जाति से सीखा। लेकिन अरबवालों ने उन्हें हिंदुस्तानियों से सीखा था। इसलिए उन्हें हिंदुस्तानी अंक कहना अधिक मुनासिब होगा।
लेकिन मैं तो सरपट दौड़ा जा रहा हूँ। अभी हम अरब जाति तक नहीं पहुँचे हैं।
लड़के, लड़कियों और सयानों को भी इतिहास अकसर एक अजीब ढंग से पढ़ाया जाता है। उन्हें राजाओं और दूसरे आदमियों के नाम और लड़ाइयों की तारीखें याद करनी पड़ती हैं। लेकिन दरअसल इतिहास लड़ाइयों का, या थोड़े- से राजाओं या सेनापतियों का नाम नहीं है। इतिहास का काम यह है कि हमें किसी मुल्क के आदमियों का हाल बताए, कि वे किस तरह रहते थे, क्या करते थे और क्या सोचते थे, किस बात से उन्हें खुशी होती थीं,
लड़के, लड़कियों और सयानों को भी इतिहास अकसर एक अजीब ढंग से पढ़ाया जाता है। उन्हें राजाओं और दूसरे आदमियों के नाम और लड़ाइयों की तारीखें याद करनी पड़ती हैं। लेकिन दरअसल इतिहास लड़ाइयों का, या थोड़े- से राजाओं या सेनापतियों का नाम नहीं है। इतिहास का काम यह है कि हमें किसी मुल्क के आदमियों का हाल बताए, कि वे किस तरह रहते थे, क्या करते थे और क्या सोचते थे, किस बात से उन्हें खुशी होती थीं, किस बात से रंज होता था, उनके सामने क्या-क्या कठिनाइयाँ आईं और उन लोगों ने कैसे उन पर काबू पाया। अगर हम इतिहास को इस तरीके से पढ़ें तो हमें उससे बहुत-सी बातें मालूम होंगी। अगर उसी तरह की कोई कठिनाई या आफत हमारे सामने आए, तो इतिहास के जानने से हम उस पर विजय पा सकते हैं। पुराने जमाने का हाल पढ़ने से हमें यह पता चल जाता है, कि लोगों की हालत पहले से अच्छी है या खराब, उन्होंने कुछ तरक्की की है या नहीं।
यह सच है कि हमें पुराने जमाने के पुरुषों और स्त्रियों के चरित्र से कुछ न कुछ सबक लेना चाहिए। लेकिन हमें यह भी जानना चाहिए कि पुराने जमाने में भिन्न-भिन्न जाति के आदमियों का क्या हाल था।
मैं तुम्हें बहुत-से पत्र लिख चुका हूँ। यह चौबीसवाँ पत्र है लेकिन अब तक हमने बहुत पुराने जमाने ही की चर्चा की है, जिसके बारे में हमें थोड़ी ही-सी बातें मालूम हैं। इसे हम इतिहास नहीं कह सकते। हम इस इतिहास की शुरुआत, या इतिहास का उदय कह सकते हैं। जल्द ही हम बाद के जमाने का जिक्र करेंगे, जिससे हम अधिक वाकिफ हैं और जिसे ऐतिहासिक काल कह सकते हैं। लेकिन उस पुरानी सभ्यता का जिक्र छेड़ने के पहले आओ हम उस पर फिर एक निगाह डालें और इसका पता लगाएं कि उस जमाने में आदमियों की कौन-कौन-सी किस्में थीं।
हम यह पहले देख चुके हैं कि पुरानी जातियों के आदमियों ने तरह-तरह के काम करने शुरू किए। काम या पेशे का बँटवारा हो गया। हमने यह भी देखा है कि जाति के सरपंच या सरगना ने अपने परिवार को दूसरों से अलग कर लिया और काम का इंतजाम करने लगा। वह ऊँचे दरजे का आदमी बन बैठा, या यों समझ लो कि उसका परिवार औरों से ऊँचे दरजे में आ गया। इस तरह आदमियों के दो दरजे हो गए। एक इंतजाम करता था, हुक्म देता था और दूसरा असली काम करता था। और यह तो जाहिर है कि इंतजाम करनेवाले दरजे का इख्तियार अधिक था और इसके जोर से उन्होंने वह सब चीजें ले लीं जिन पर वह हाथ बढ़ा सके। वे अधिक मालदार हो गए और काम करनेवालों की कमाई को दिन-दिन अधिक हड़पने लगे।
इसी तरह ज्यों-ज्यों काम की बाँट होती गई और दरजे पैदा होते गए। राजा और उसका परिवार तो था ही, उसके दरबारी भी पैदा हो गए। वे मुल्क का इंतजाम करते थे और दुश्मनों से उसकी हिफाजत करते थे। वे आमतौर पर कोई दूसरा काम न करते थे।
मंदिरों के पुजारियों और नौकरों का एक दूसरा दरजा था। उस जमाने में इन लोगों का बहुत रोबदाब था और हम उनका जिक्र फिर करेंगे।
तीसरा दरजा व्यापारियों का था। ये वे सौदागर लोग थे जो एक मुल्क का माल दूसरे मुल्क में ले जाते थे, माल खरीदते थे और बेचते थे और दुकानें खोलते थे।
चौथा दरजा कारीगरों का था, जो हर एक किस्म की चीजें बनाते थे, सूत कातते और कपड़े बुनते थे, मिट्टी के बरतन बनाते थे, पीतल के बरतन गढ़ते थे, सोने और हाथी दाँत की चीजें बनाते थे तथा बहुत-से और काम करते थे। ये लोग अकसर शहरों में या शहरों के नजदीक रहते थे लेकिन बहुत से देहातों में भी बसे हुए थे।
सबसे नीचा दरजा उन किसानों और मजदूरों का था जो खेतों में या शहरों में काम करते थे। इस दरजे में सबसे अधिक आदमी थे। और सभी दरजों के लोग उन्हीं पर दाँत लगाए रहते थे और उनसे कुछ न कुछ ऐंठते रहते थे।
हमने पिछले पत्र में लिखा था कि आदमियों के पाँच दरजे बन गए। सबसे बड़ी जमात मजदूर और किसानों की थी। किसान जमीन जोतते थे और खाने की चीजें पैदा करते थे। अगर किसान या और लोग जमीन न जोतते और खेती न होती तो अनाज पैदा ही न होता, या होता तो बहुत कम। इसलिए किसानों का दरजा बहुत जरूरी था। वे न होते तो सब लोग भूखों मर जाते। मजदूर भी खेतों या शहरों में बहुत फायदे के काम करते थे। लेकिन इन अभागों को
हमने पिछले पत्र में लिखा था कि आदमियों के पाँच दरजे बन गए। सबसे बड़ी जमात मजदूर और किसानों की थी। किसान जमीन जोतते थे और खाने की चीजें पैदा करते थे। अगर किसान या और लोग जमीन न जोतते और खेती न होती तो अनाज पैदा ही न होता, या होता तो बहुत कम। इसलिए किसानों का दरजा बहुत जरूरी था। वे न होते तो सब लोग भूखों मर जाते। मजदूर भी खेतों या शहरों में बहुत फायदे के काम करते थे। लेकिन इन अभागों को इतना जरूरी काम करने और हर एक आदमी के काम आने पर भी मुश्किल से गुजारे भर को मिलता था। उनकी कमाई का बड़ा हिस्सा दूसरों के हाथ पड़ जाता था विशेषकर राजा और उसके दरजे के दूसरे आदमियों और अमीरों के हाथ। उसकी टोली के दूसरे लोग जिनमें दरबारी भी शामिल थे उन्हें बिल्कुल चूस लेते थे।
हम पहले लिख चुके हैं कि राजा और उसके दरबारियों का बहुत दबाव था। शुरू में जब जातियाँ बनीं, तो जमीन किसी एक आदमी की न होती थी, जाति भर की होती थी। लेकिन जब राजा और उसकी टोली के आदमियों की ताकत बढ़ गई तो वे कहने लगे कि जमीन हमारी है। वे जमींदार हो गए और बेचारे किसान जो छाती फाड़ कर खेती-बारी करते थे, एक तरह से महज उनके नौकर हो गए। फल यह हुआ कि किसान खेती करके जो कुछ पैदा करते थे वह बँट जाता था और बड़ा हिस्सा जमींदार के हाथ लगता था।
बाज मंदिरों के कब्जे में भी जमीन थी, इसलिए पुजारी भी जमींदार हो गए। मगर ये मंदिर और उनके पुजारी थे कौन। मैं एक पत्र में लिख चुका हूँ कि शुरू में जंगली आदमियों को ईश्वर और धर्म का खयाल इस वजह से पैदा हुआ कि दुनिया की बहुत-सी बातें उनकी समझ में न आती थीं और जिस बात को वे समझ न सकते थे, उससे भयते थे। उन्होंने हर एक चीज को देवता या देवी बना लिया, जैसे नदी, पहाड़, सूरज, पेड़, जानवर और बाज ऐसी चीजें जिन्हें वे देख तो न सकते थे पर कल्पना करते थे, जैसे भूत-प्रेत। वे इन देवताओं से भयते थे, इसलिए उन्हें हमेशा यह खयाल होता था कि वे उन्हें सजा देना चाहते हैं। वे अपने देवताओं को भी अपनी ही तरह क्रोधी और निर्दयी समझते थे और उनका गुस्सा ठंडा करने या उन्हें खुश करने के लिए क़ुरबानियाँ दिया करते थे।
इन्हीं देवताओं के लिए मंदिर बनने लगे। मन्दिर के भीतर एक मंडप होता था जिसमें देवता की मूर्ति होती थी। वे किसी ऐसी चीज की पूजा कैसे करते जिसे वे देख ही न सकें। यह जरा मुश्किल है। तुम्हें मालूम है कि छोटा बच्चा उन्हीं चीजों का खयाल कर सकता है जिन्हें वह देखता है। शुरू जमाने के लोगों की हालत कुछ बच्चों की सी थी। चूँकि वे मूर्ति के बिना पूजा ही न कर सकते थे, वे अपने मंदिरों में मूर्तियाँ रखते थे। यह कुछ अजीब बात है कि ये मूर्तियाँ बराबर डरावने, कुरूप जानवरों की होती थीं, या कभी-कभी आदमी और जानवर की मिली हुई। मिस्र में एक जमाने में बिल्ली की पूजा होती थी, और मुझे याद आता है कि एक दूसरे जमाने में बंदर की। समझ में नहीं आता कि लोग ऐसी भयानक मूर्तियों की पूजा क्यों करते थे। अगर मूर्ति ही पूजना चाहते थे तो उसे खूबसूरत क्यों न बनाते थे? लेकिन शायद उनका खयाल था कि देवता डरावने होते हैं, इसीलिए वे उनकी ऐसी भयानक मूर्तियाँ बनाते थे।
उस जमाने में शायद लोगों का यह खयाल न था कि ईश्वर एक है, या वह कोई बड़ी ताकत है जैसा लोग आज समझते हैं। वे सोचते होंगे कि बहुत-से देवता और देवियाँ हैं, जिनमें शायद कभी-कभी लड़ाइयाँ भी होती हों। अलग-अलग शहरों और मुल्कों के देवता भी अलग-अलग होते थे।
मंदिरों में बहुत-से पुजारी और पुजारिनें होती थीं। पुजारी लोग आम तौर पर लिखना-पढ़ना जानते थे और दूसरे आदमियों से अधिक पढ़े-लिखे होते थे। इसलिए राजा लोग उनसे सलाह लिया करते थे। उस जमाने में किताबों को लिखना या नकल करना पुजारियों का ही काम था। उन्हें कुछ विद्याएँ आती थीं इसलिए वे पुराने जमाने के ऋषि समझे जाते थे। वे हकीम भी होते थे और अक्सर महज यह दिखाने के लिए कि वे लोग कितने पहुँचे हुए हैं, वे लोगों के सामने जादू के करतब किया करते थे। लोग सीधे और मूर्ख तो थे ही, वे पुजारियों को जादूगर समझते थे और उनसे थर-थर काँपते थे।
पुजारी लोग हर तरह से आदमियों की जिंदगी के कामों में मिले-जुले रहते थे। वही उस जमाने के अक्लमंद आदमियों में थे और हर एक आदमी मुसीबत या बीमारी में उनके पास जाता था। वे आदमियों के लिए बड़े-बड़े त्योहारों का इंतजाम करते थे। उस जमाने में पत्र न थे, खास कर गरीब आदमियों के लिए। वे त्योहारों ही से दिनों का हिसाब लगाते थे।
पुजारी लोग प्रजा को ठगते और धोखा देते थे। लेकिन इनके साथ कई बातों में उनकी मदद भी करते और उन्हें आगे भी बढ़ाते थे।
मुमकिन है कि जब लोग पहले-पहल शहरों में बसने लगे हों तो उन पर राज्य करनेवाले राजा न रहे हों, पुजारी ही रहे हों। बाद को राजा आए होंगे और चूँकि वे लोग लड़ने में अधिक होशियार थे, उन्होंने पुजारियों को निकाल दिया होगा। बाज जगहों में एक ही आदमी राजा और पुजारी दोनों ही होता था, जैसे मिस्र के फिरऊन। फिरऊन लोग अपनी जिंदगी ही में आधे देवता समझे जाने लगे थे, और मरने के बाद तो वे पूरे देवताओं की तरह पुजने लगे।
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