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DOWNLOAD NOWहम यह नहीं कह सकते कि दुनिया के किस हिस्से में पहले-पहल आदमी पैदा हुए। न हमें यही मालूम है कि शुरू में वह कहाँ बसे। शायद आदमी एक ही वक्त में, कुछ आगे पीछे दुनिया के कई हिस्सों में पैदा हुए। हाँ, इसमें अधिक सन्देह नहीं है कि ज्यों-ज्यों बर्फ के जमाने के बड़े-बड़े बर्फीले पहाड़ पिघलते और उत्तर की ओर हटते जाते थे, आदमी अधिक गर्म हिस्सों में आते जाते थे। बर्फ के पिघल जाने के बाद बड़े-बड़े
हम यह नहीं कह सकते कि दुनिया के किस हिस्से में पहले-पहल आदमी पैदा हुए। न हमें यही मालूम है कि शुरू में वह कहाँ बसे। शायद आदमी एक ही वक्त में, कुछ आगे पीछे दुनिया के कई हिस्सों में पैदा हुए। हाँ, इसमें अधिक सन्देह नहीं है कि ज्यों-ज्यों बर्फ के जमाने के बड़े-बड़े बर्फीले पहाड़ पिघलते और उत्तर की ओर हटते जाते थे, आदमी अधिक गर्म हिस्सों में आते जाते थे। बर्फ के पिघल जाने के बाद बड़े-बड़े मैदान बन गए होंगे, कुछ उन्हीं मैदानों की तरह जो आजकल साइबेरिया में हैं। इस जमीन पर घास उग आई और आदमी अपने जानवरों को चराने के लिए इधर-उधर घूमते-फिरते होंगे। जो लोग किसी एक जगह टिक कर नहीं रहते बल्कि हमेशा घूमते रहते हैं 'खानाबदोश' कहलाते हैं। आज भी हिंदुस्तान और बहुत से दूसरे मुल्कों में ये खानाबदोश या बंजारे मौजूद हैं।
आदमी बड़ी-बड़ी नदियों के पास बसे होंगे, क्योंकि नदियों के पास की जमीन बहुत उपजाऊ और खेती के लिए बहुत अच्छी होती है। पानी की तो कोई कमी थी ही नहीं और जमीन में खाने की चीजें आसानी से पैदा हो जाती थीं, इसलिए हमारा खयाल है कि हिंदुस्तान में लोग सिन्धु और गंगा जैसी बड़ी-बड़ी नदियों के पास बसे होंगे, मेसोपोटैमिया में दजला और फरात के पास, मिस्र में नील के पास और उसी तरह चीन में भी हुआ होगा।
हिंदुस्तान की सबसे पुरानी कौम, जिसका हाल हमें कुछ मालूम है, द्रविड़ है। उसके बाद, हम जैसा आगे देखेंगे, आर्य आए और पूरब में मंगोल जाति के लोग आए। आजकल भी दक्षिणी हिंदुस्तान के आदमियों में बहुत-से द्रविड़ों की संतानें हैं। वे उत्तर के आदमियों से अधिक काले हैं, इसलिए कि शायद द्रविड़ लोग हिंदुस्तान में और अधिक दिनों से रह रहे हैं। द्रविड़ जातिवालों ने बड़ी उन्नति कर ली थी, उनकी अलग एक जबान थी और वे दूसरी जातिवालों से बड़ा व्यापार भी करते थे। लेकिन हम बहुत तेजी से बढ़े जा रहे हैं।
उस जमाने में पश्चिमी-एशिया और पूर्वी-यूरोप में एक नई जाति पैदा हो रही थी। यह आर्य कहलाती थी। संस्कृत में आर्य शब्द का अर्थ है शरीफ आदमी या ऊँचे कुल का आदमी। संस्कृत आर्यों की एक जबान थी इसलिए इससे मालूम होता है कि वे लोग अपने को बहुत शरीफ और खानदानी समझते थे। ऐसा मालूम होता है कि वे लोग भी आजकल के आदमियों की ही तरह शेखीबाज थे। तुम्हें मालूम है कि अंग्रेज अपने को दुनिया में सबसे बढ़ कर समझता है, फ्रांसीसी का भी यही खयाल है कि मैं ही सबसे बड़ा हूँ, इसी तरह जर्मन, अमरीकन और दूसरी जातियाँ भी अपने ही बड़प्पन का राग अलापती हैं।
ये आर्य उत्तरी-एशिया और यूरोप के चरागाहों में घूमते रहते थे। लेकिन जब उनकी आबादी बढ़ गई और पानी और चारे की कमी हो गई तो उन सबके लिए खाना मिलना मुश्किल हो गया इसलिए वे खाने की तलाश में दुनिया के दूसरे हिस्सों में जाने के लिए मजबूर हुए। एक तरफ तो वे सारे यूरोप में फैल गए, दूसरी तरफ हिंदुस्तान, ईरान और मेसोपोटैमिया में आ पहुँचे। इससे मालूम होता है कि यूरोप, उत्तरी हिंदुस्तान और मेसोपोटैमिया की सभी जातियाँ असल में एक ही पुरखों की संतान हैं, यानी आर्यों की; हालाँकि आजकल उनमें बड़ा फर्क है। यह तो मानी हुई बात है कि इधर बहुत जमाना गुजर गया और तब से बड़ी-बड़ी तब्दीलियाँ हो गईं और कौमें आपस में बहुत कुछ मिल गईं। इस तरह आज की बहुत-सी जातियों के पुरखे आर्य ही थे।
दूसरी बड़ी जाति मंगोल हैं। यह सारे पूर्वी एशिया अर्थात चीन, जापान, तिब्बत, स्याम (अब थाइलैंड) और बर्मा में फैल गई। उन्हें कभी-कभी पीली जाति भी कहते हैं। उनके गालों की हड्डियाँ ऊँची और आँखें छोटी होती हैं।
अफ्रीका और कुछ दूसरी जगहों के आदमी हब्शी हैं। वे न आर्य हैं, न मंगोल और उनका रंग बहुत काला होता है। अरब और फलिस्तीन की जातियाँ अरबी और यहूदी एक दूसरी ही जाति से पैदा हुईं।
ये सभी जातियाँ हजारों वर्ष के दौरान में बहुत-सी छोटी जातियों में बँट गई हैं और कुछ मिल-जुल गई हैं। मगर हम उनकी तरफ धयान न देंगे। भिन्न-भिन्न जातियों के पहचान का एक अच्छा और दिलचस्प तरीका उनकी जबानों का पढ़ना है। शुरू-शुरू में हर एक जाति की एक अलग जबान थी, लेकिन ज्यों-ज्यों दिन गुजरते गए उस एक जबान से बहुत-सी जबानें निकलती गईं। लेकिन ये सब जबानें एक ही माँ की बेटियॉं हैं। हमें उन जबानों में बहुत-से शब्द एक-से ही मिलते हैं और इससे मालूम होता है कि उनमें कोई गहरा नाता है।
जब आर्य एशिया और यूरोप में फैल गए तो उनका आपस में मेल-जोल न रहा। उस जमाने में न रेलगाड़ियाँ थीं, न तार व डाक, यहाँ तक कि लिखी हुई पुस्तकें तक न थीं। इसलिए आर्यों का हर एक हिस्सा एक ही जबान को अपने-अपने ढंग से बोलता था, और कुछ दिनों के बाद यह असली जबान से, या आर्य देशों की दूसरी बहनों से, बिल्कुल अलग हो गई। यही सबब है कि आज दुनिया में इतनी जबानें मौजूद हैं।
लेकिन अगर हम इन जबानों को गौर से देखें तो मालूम होगा कि वे बहुत-सी हैं लेकिन असली जबानें बहुत कम हैं। मिवर्ष के तौर पर देखो कि जहाँ-जहाँ आर्य जाति के लोग गए वहाँ उनकी जबान आर्य खानदान की ही रही है। संस्कृत, लैटिन, यूनानी, अंग्रेजी, फ्रांसीसी, जर्मन, इटालियन और बाज दूसरी जबानें सब बहनें हैं और आर्य खानदान की ही हैं। हमारी हिन्दुस्तानी जबानों में भी जैसे हिंदी, उर्दू, बाँग्ला, मराठी और गुजराती सब संस्कृत की संतान हैं और आर्य परिवार में शामिल हैं।
जबान का दूसरा बड़ा खानदान चीनी है। चीनी, बर्मी, तिब्बती और स्यामी जबानें उसी से निकली हैं। तीसरा खानदान शेम जबान का है, जिससे अरबी और इबरानी जबानें निकली हैं।
कुछ जबानें जैसे तुर्की और जापानी इनमें से किसी वंश में नहीं हैं। दक्षिणी हिंदुस्तान की कुछ जबानें, जैसे तमिल, तेगलु, मलयालम और कन्नड़ भी उन खानदानों में नहीं हैं। ये चारों द्रविड़ खानदान की हैं और बहुत पुरानी हैं।
हम बता चुके हैं कि आर्य बहुत-से मुल्कों में फैल गए और जो कुछ भी उनकी जबान थी उसे अपने साथ लेते गए। लेकिन तरह-तरह की आबोहवा और तरह-तरह की हालतों ने आर्यों की बड़ी-बड़ी जातियों में बहुत फर्क पैदा कर दिया। हर एक जाति अपने ही ढंग पर बदलती गई और उसकी आदतें और रस्में भी बदलती गईं। वे दूसरे मुल्कों में दूसरी जातियों से न मिल सकते थे, क्योंकि उस जमाने में सफर करना बहुत मुश्किल था, एक गिरोह दूसरे
हम बता चुके हैं कि आर्य बहुत-से मुल्कों में फैल गए और जो कुछ भी उनकी जबान थी उसे अपने साथ लेते गए। लेकिन तरह-तरह की आबोहवा और तरह-तरह की हालतों ने आर्यों की बड़ी-बड़ी जातियों में बहुत फर्क पैदा कर दिया। हर एक जाति अपने ही ढंग पर बदलती गई और उसकी आदतें और रस्में भी बदलती गईं। वे दूसरे मुल्कों में दूसरी जातियों से न मिल सकते थे, क्योंकि उस जमाने में सफर करना बहुत मुश्किल था, एक गिरोह दूसरे से अलग होता था। अगर एक मुल्क के आदमियों को कोई नई बात मालूम हो जाती, तो वे उसे दूसरे मुल्कवालों को न बता सकते। इस तरह तब्दीलियाँ होती गई और कई पुश्तों के बाद एक आर्य जाति के बहुत-से टुकड़े हो गए। शायद वे यह भी भूल गए कि हम एक ही बड़े खानदान से हैं। उनकी एक जबान से बहुत-सी जबानें पैदा हो गईं जो आपस में बहुत कम मिलती-जुलती थीं।
लेकिन उनमें इतना फर्क मालूम होता था, उनमें बहुत से शब्द एक ही थे, और कई दूसरी बातें भी मिलती-जुलती थीं। आज हजारों वर्ष के बाद भी हमें तरह-तरह की भाषाओं में एक ही शब्द मिलते हैं। इससे मालूम होता है कि किसी जमाने में ये भाषाएँ एक ही रही होंगी। तुम्हें मालूम है कि फ्रांसीसी और अंग्रेजी में बहुत-से एक जैसे शब्द हैं। दो बहुत घरेलू और मामूली शब्द ले लो, 'फादर' और 'मदर', हिंदी और संस्कृत में यह शब्द 'पिता' और 'माता' हैं। लैटिन में वे 'पेटर' और 'मेटर' हैं; यूनान में 'पेटर' और 'मीटर'; जर्मन में 'फाटेर' और 'मुत्तार'; फ्रांसीसी में 'पेर' और 'मेर' और इसी तरह और जबानों में भी। ये शब्द आपस में कितने मिलते-जुलते हैं! भाई बहनों की तरह उनकी सूरतें कितनी समान हैं! यह सच है कि बहुत-से शब्द एक भाषा से दूसरी भाषा में आ गए होंगे। हिंदी ने बहुत से शब्द अंग्रेजी से लिए हैं और अंग्रेज़ी ने भी कुछ शब्द हिंदी से लिए हैं। लेकिन 'फादर' और 'मदर' इस तरह कभी न लिये गए होंगे। ये नए शब्द नहीं हो सकते। शुरू-शुरू में जब लोगों ने एक दूसरे से बात करनी सीखी तो उस वक्त माँ-बाप तो थे ही, उनके लिए शब्द भी बन गए। इसलिए हम कह सकते हैं कि ये शब्द बाहर से नहीं आए। वे एक ही पुरखे या एक ही खानदान से निकले होंगे। और इससे हमें मालूम हो सकता है कि जो कौमें आज दूर-दूर के मुल्कों में रहती हैं और भिन्न-भिन्न भाषाएँ बोलती हैं वे सब किसी जमाने में एक ही बड़े खानदान की रही होंगी। तुमने देख लिया न कि जबानों का सीखना कितना दिलचस्प है और उससे हमें कितनी बातें मालूम होती हैं। अगर हम तीन-चार जबानें जान जाएँ तो और जबानों का सीखना आसान हो जाता है।
तुमने यह भी देखा कि बहुत-से आदमी जो अब दूर-दूर मुल्कों में एक-दूसरे से अलग रहते हैं, किसी जमाने में एक ही कौम के थे। तब से हम में बहुत फर्क हो गया है और हम अपने पुराने रिश्ते भूल गए हैं। हर एक मुल्क के आदमी खयाल करते हैं कि हमीं सबसे अच्छे और अक्लमंद हैं और दूसरी जातें हमसे घटिया हैं। अंग्रेज खयाल करता है कि वह और उसका मुल्क सबसे अच्छा है; फ्रांसीसी को अपने मुल्क और सभी फ्रांसीसी चीजों पर घमंड है; जर्मन और इटालियन अपने मुल्कों को सबसे ऊँचा समझते हैं। और बहुत-से हिंदुस्तानियों का खयाल है कि हिंदुस्तान बहुत-सी बातों में सारी दुनिया से बढ़ा हुआ है। यह सब डींग है। हर एक आदमी अपने को और अपने मुल्क को अच्छा समझता है लेकिन दरअसल कोई ऐसा आदमी नहीं है जिसमें कुछ ऐब और कुछ हुनर न हों। इसी तरह कोई ऐसा मुल्क नहीं है जिसमें कुछ बातें अच्छी और कुछ बुरी न हों। हमें जहाँ कहीं अच्छी बात मिलें उसे ले लेना चाहिए और बुराई जहाँ कहीं हो उसे दूर कर देना चाहिए। हमको तो अपने मुल्क हिंदुस्तान की ही सबसे अधिक फिक्र है। हमारे दुर्भाग्य से इसका जमाना आजकल बहुत खराब है और बहुत-से आदमी गरीब और दुखी हैं। उन्हें अपनी जिंदगी में कोई खुशी नहीं है। हमें इसका पता लगाना है कि हम उन्हें कैसे सुखी बना सकते हैं। यह देखना है कि हमारे रस्म-रिवाज में क्या खूबियाँ हैं और उनको बचाने की कोशिश करना है, जो बुराइयाँ हैं उन्हें दूर करना है। अगर हमें दूसरे मुल्कों में कोई अच्छी बात मिले तो उसे जरूर ले लेनी चाहिए।
हम हिंदुस्तानी हैं और हमें हिंदुस्तान में रहना और उसी की भलाई के लिए काम करना है लेकिन हमें यह न भूलना चाहिए कि दुनिया के और हिस्सों के रहनेवाले हमारे रिश्तेदार और कुटुम्बी हैं। क्या ही अच्छी बात होती अगर दुनिया के सभी आदमी खुश और सुखी होते। हमें कोशिश करनी चाहिए कि सारी दुनिया ऐसी हो जाए जहाँ लोग चैन से रह सकें।
मैं आज तुम्हें पुराने जमाने की सभ्यता का कुछ हाल बताता हूँ। लेकिन इसके पहले हमें यह समझ लेना चाहिए कि सभ्यता का अर्थ क्या है? कोश में तो इसका अर्थ लिखा है अच्छा करना, सुधारना, जंगली आदतों की जगह अच्छी आदतें पैदा करना। और इसका व्यवहार किसी समाज या जाति के लिए ही किया जाता है। आदमी की जंगली दशा को, जब वह बिल्कुल जानवरों-सा होता है, बर्बरता कहते हैं। सभ्यता बिल्कुल उसकी उलटी चीज है। हम
मैं आज तुम्हें पुराने जमाने की सभ्यता का कुछ हाल बताता हूँ। लेकिन इसके पहले हमें यह समझ लेना चाहिए कि सभ्यता का अर्थ क्या है? कोश में तो इसका अर्थ लिखा है अच्छा करना, सुधारना, जंगली आदतों की जगह अच्छी आदतें पैदा करना। और इसका व्यवहार किसी समाज या जाति के लिए ही किया जाता है। आदमी की जंगली दशा को, जब वह बिल्कुल जानवरों-सा होता है, बर्बरता कहते हैं। सभ्यता बिल्कुल उसकी उलटी चीज है। हम बर्बरता से जितनी ही दूर जाते हैं उतने ही सभ्य होते जाते हैं।
लेकिन हमें यह कैसे मालूम हो कि कोई आदमी या समाज जंगली है या सभ्य? यूरोप के बहुत-से आदमी समझते हैं कि हमीं सभ्य हैं और एशियावाले जंगली हैं। क्या इसका यह सबब है कि यूरोपवाले एशिया और अफ्रीकावालों से अधिक कपड़े पहनते हैं? लेकिन कपड़े तो आबोहवा पर निर्भर करते हैं। ठंडे मुल्क में लोग गर्म मुल्कवालों से अधिक कपड़े पहनते हैं। तो क्या इसका यह सबब है कि जिसके पास बंदूक है वह निहत्थे आदमी से अधिक मजबूत और इसलिए अधिक सभ्य है? चाहे वह अधिक सभ्य हो या न हो, कमजोर आदमी उससे यह नहीं कह सकता कि आप सभ्य नहीं हैं। कहीं मजबूत आदमी झल्ला कर उसे गोली मार दे, तो वह बेचारा क्या करेगा?
तुम्हें मालूम है कि कई वर्ष पहले एक बड़ी लड़ाई हुई थी! दुनिया के बहुत- से मुल्क उसमें शरीक थे और हर एक आदमी दूसरी तरफ के अधिक से अधिक आदमियों को मार डालने की कोशिश कर रहा था। अंग्रेज जर्मनीवालों के खून के प्यासे थे और जर्मन अंग्रेजों के खून के। इस लड़ाई में लाखों आदमी मारे गए और हजारों के अंग-भंग हो गए कोई अंधा हो गया, कोई लूला, कोई लँगड़ा। तुमने फ्रांस और दूसरी जगह भी ऐसे बहुत-से लड़ाई के जख्मी देखे होंगे। पेरिस की सुरंगवाली रेलगाड़ी में, जिसे मेट्रो कहते हैं, उनके लिए खास जगहें हैं। क्या तुम समझती हो कि इस तरह अपने भाइयों को मारना सभ्यता और समझदारी की बात है? दो आदमी गलियों में लड़ने लगते हैं, तो पुलिसवाले उनमें बीच बचाव कर देते हैं और लोग समझते हैं कि ये दोनों कितने बेवकूफ हैं। तो जब दो बड़े-बड़े मुल्क आपस में लड़ने लगें और हजारों और लाखों आदमियों को मार डालें तो वह कितनी बड़ी बेवकूफी और पागलपन है। यह ठीक वैसा ही है जैसे दो वहशी जंगलों में लड़ रहे हों। और अगर वहशी आदमी जंगली कहे जा सकते हैं तो वह मूर्ख कितने जंगली हैं जो इस तरह लड़ते हैं?
अगर इस निगाह से तुम इस मामले को देखो, तो तुम फौरन कहोगी कि इंग्लैंड, जर्मनी, फ्रांस, इटली और बहुत से दूसरे मुल्क जिन्होंने इतनी मार-काट की, जरा भी सभ्य नहीं हैं। और फिर भी तुम जानती हो कि इन मुल्कों में कितनी अच्छी-अच्छी चीजें हैं और वहाँ कितने अच्छे-अच्छे आदमी रहते हैं।
अब तुम कहोगी कि सभ्यता का मतलब समझना आसान नहीं है, और यह ठीक है। यह बहुत ही मुश्किल मामला है। अच्छी-अच्छी इमारतें, अच्छी-अच्छी तस्वीरें और पुस्तकें और तरह-तरह की दूसरी और खूबसूरत चीजें जरूर सभ्यता की पहचान हैं। मगर एक भला आदमी जो स्वार्थी नहीं है और सबकी भलाई के लिए दूसरों के साथ मिल कर काम करता है, सभ्यता की इससे भी बड़ी पहचान है। मिल कर काम करना अकेले काम करने से अच्छा है और सबकी भलाई के लिए एक साथ मिल कर काम करना सबसे अच्छी बात है।
जातियों का बनना
मैंने पिछले खतों में तुम्हें बताया है कि शुरू में जब आदमी पैदा हुआ तो वह बहुत कुछ जानवरों से मिलता था। धीरे-धीरे हजारों वर्षों में उसने तरक्की की और पहले से अधिक होशियार हो गया। पहले वह अकेले ही जानवरों का शिकार करता होगा, जैसे जंगली जानवर आज भी करते हैं। कुछ दिनों के बाद उसे मालूम हुआ कि और आदमियों के साथ एक गिरोह में रहना अधिक अक्ल की बात है और उसमें जान जाने का भय भी कम है। एक साथ रहकर वह अधिक मजबूत हो जाते थे और जानवरों या दूसरे आदमियों के हमलों का अधिक अच्छी तरह मुकाबला कर सकते थे। जानवर भी तो अपनी रक्षा के लिए अकसर झुंडों में रहा करते हैं। भेड़, बकरियाँ और हिरन, यहाँ तक कि हाथी भी झुंडों में ही रहते हैं। जब झुंड सोता है, तो उनमें से एक जागता रहता है और उनका पहरा देता है। तुमने भेड़ियों के झुंड की कहानियाँ पढ़ी होंगी। रूस में जाड़ों के दिनों में वे झुंड बांधाकर चलते हैं और जब उन्हें भूख लगती है, जाड़ों में उन्हें अधिक भूख लगती भी है, तो आदमियों पर हमला कर देते हैं। एक भेड़िया कभी आदमी पर हमला नहीं करता लेकिन उनका एक झुंड इतना मजबूत हो जाता है कि वह कई आदमियों पर भी हमला कर बैठता है। तब आदमियों को अपनी जान लेकर भागना पड़ता है और अक्सर भेड़ियों और बर्फ वाली गाड़ियों में बैठे हुए आदमियों में दौड़ होती है।
इस तरह पुराने जमाने के आदमियों ने सभ्यता में जो पहली तरक्की की वह मिल कर झुंडों में रहना था। इस तरह जातियों (फिरकों) की बुनियाद पड़ी। वे साथ-साथ काम करने लगे। वे एक दूसरे की मदद करते रहते थे। हर एक आदमी पहले अपनी जाति का खयाल करता था और तब अपना। अगर जाति पर कोई संकट आता तो हर एक आदमी जाति की तरफ से लड़ता था। और अगर कोई आदमी जाति के लिए लड़ने से इन्कार करता तो बाहर निकाल दिया जाता था।
अब अगर बहुत से आदमी एक साथ मिल कर काम करना चाहते हैं तो उन्हें कायदे के साथ काम करना पड़ेगा। अगर हर एक आदमी अपनी मर्जी के मुताबिक काम करे तो वह जाति बहुत दिन न चलेगी। इसलिए किसी एक को उनका सरदार बनना पड़ता है। जानवरों के झुंडों में भी तो सरदार होते हैं। जातियों में वही आदमी सरदार चुना जाता था जो सबसे मजबूत होता था इसलिए कि उस जमाने में बहुत लड़ाई करनी पड़ती थी।
अगर एक जाति के आदमी आपस में लड़ने लगें तो जाति नष्ट हो जाएगी। इसलिए सरदार देखता रहता था कि लोग आपस में न लड़ने पाएँ। हाँ, एक जाति दूसरी जाति से लड़ सकती थी और लड़ती थी। यह तरीका उस पुराने तरीके से अच्छा था जब हर एक आदमी अकेला ही लड़ता था।
शुरू-शुरू की जातियाँ बड़े-बड़े परिवारों की तरह रही होंगी। उसके सब आदमी एक-दूसरे के रिश्तेदार होते होंगे। ज्यों-ज्यों यह परिवार बढ़े, जातियाँ भी बढ़ीं।
उस पुराने जमाने में आदमी का जीवन बहुत कठिन रहा होगा, विशेषकर जातियाँ बनने के पहले। न उनके पास कोई घर था, न कपड़े थे। हाँ, शायद जानवरों की खालें पहनने को मिल जाती हों। और उसे बराबर लड़ना पड़ता रहा होगा। अपने भोजन के लिए या तो जानवरों का शिकार करना पड़ता था या जंगली फल जमा करने पड़ते थे। उसे अपने चारों तरफ दुश्मन ही दुश्मन नजर आते होंगे। प्रकृति भी उसे दुश्मन मालूम होती होगी, क्योंकि ओले, बर्फ और भूचाल वही तो लाती थी। बेचारे की दशा कितनी दीन थी। जमीन पर रेंग रहा है, और हर एक चीज से भयता है इसलिए कि वह कोई बात समझ नहीं सकता। अगर ओले गिरते तो वह समझता कि कोई देवता बादल में बैठा हुआ उस पर निशाना मार रहा है। वह भय जाता था और उस बादल में बैठे हुए आदमी को खुश करने के लिए कुछ न कुछ करना चाहता था जो उस पर ओले और पानी और बर्फ गिरा रहा था। लेकिन उसे खुश करे तो कैसे! न वह बहुत समझदार था, न होशियार था। उसने सोचा होगा कि बादलों का देवता हमारी ही तरह होगा और खाने की चीजें पसन्द करता होगा। इसलिए वह कुछ माँस रख देता था, या किसी जानवर की कुरबानी करके छोड़ देता था कि देवता आकर खा ले। वह सोचता था कि इस उपाय से ओला या पानी बंद हो जाएगा। हमें यह पागलपन मालूम होता है क्योंकि हम मेह या ओले या बर्फ के गिरने का सबब जानते हैं जानवरों के मारने से उसका कोई संबंध नहीं है। लेकिन आज भी ऐसे आदमी मौजूद हैं जो इतने नासमझ हैं कि अब तक वही काम किये जाते हैं।
मैंने पिछले खतों में तुम्हें बताया है कि शुरू में जब आदमी पैदा हुआ तो वह बहुत कुछ जानवरों से मिलता था। धीरे-धीरे हजारों वर्षों में उसने तरक्की की और पहले से अधिक होशियार हो गया। पहले अकेले ही जानवरों का शिकार करता होगा, जैसे जंगली जानवर आज भी करते हैं। कुछ दिनों के बाद उसे मालूम हुआ कि और आदमियों के साथ एक गिरोह में रहना अधिक अक्ल की बात है और उसमें जान जाने का भय भी कम है। एक साथ
मैंने पिछले खतों में तुम्हें बताया है कि शुरू में जब आदमी पैदा हुआ तो वह बहुत कुछ जानवरों से मिलता था। धीरे-धीरे हजारों वर्षों में उसने तरक्की की और पहले से अधिक होशियार हो गया। पहले अकेले ही जानवरों का शिकार करता होगा, जैसे जंगली जानवर आज भी करते हैं। कुछ दिनों के बाद उसे मालूम हुआ कि और आदमियों के साथ एक गिरोह में रहना अधिक अक्ल की बात है और उसमें जान जाने का भय भी कम है। एक साथ रहकर वह अधिक मजबूत हो जाते थे और जानवरों या दूसरे आदमियों के हमलों का अधिक अच्छी तरह मुकाबला कर सकते थे। जानवर भी तो अपनी रक्षा के लिए अकसर झुंडों में रहा करते हैं। भेड़, बकरियाँ और हिरन, यहाँ तक कि हाथी भी झुंडों में ही रहते हैं। जब झुंड सोता है, तो उनमें से एक जागता रहता है और उनका पहरा देता है। तुमने भेड़ियों के झुंड की कहानियाँ पढ़ी होंगी। रूस में जाड़ों के दिनों में वे झुंड बांधाकर चलते हैं और जब उन्हें भूख लगती है, जाड़ों में उन्हें अधिक भूख लगती भी है, तो आदमियों पर हमला कर देते हैं। एक भेड़िया कभी आदमी पर हमला नहीं करता लेकिन उनका एक झुंड इतना मजबूत हो जाता है कि वह कई आदमियों पर भी हमला कर बैठता है। तब आदमियों को अपनी जान लेकर भागना पड़ता है और अक्सर भेड़ियों और बर्फ वाली गाड़ियों में बैठे हुए आदमियों में दौड़ होती है।
इस तरह पुराने जमाने के आदमियों ने सभ्यता में जो पहली तरक्की की वह मिल कर झुंडों में रहना था। इस तरह जातियों (फिरकों) की बुनियाद पड़ी। वे साथ-साथ काम करने लगे। वे एक दूसरे की मदद करते रहते थे। हर एक आदमी पहले अपनी जाति का खयाल करता था और तब अपना। अगर जाति पर कोई संकट आता तो हर एक आदमी जाति की तरफ से लड़ता था। और अगर कोई आदमी जाति के लिए लड़ने से इन्कार करता तो बाहर निकाल दिया जाता था।
अब अगर बहुत से आदमी एक साथ मिल कर काम करना चाहते हैं तो उन्हें कायदे के साथ काम करना पड़ेगा। अगर हर एक आदमी अपनी मर्जी के मुताबिक काम करे तो वह जाति बहुत दिन न चलेगी। इसलिए किसी एक को उनका सरदार बनना पड़ता है। जानवरों के झुंडों में भी तो सरदार होते हैं। जातियों में वही आदमी सरदार चुना जाता था जो सबसे मजबूत होता था इसलिए कि उस जमाने में बहुत लड़ाई करनी पड़ती थी।
अगर एक जाति के आदमी आपस में लड़ने लगें तो जाति नष्ट हो जाएगी। इसलिए सरदार देखता रहता था कि लोग आपस में न लड़ने
पाएँ। हाँ, एक जाति दूसरी जाति से लड़ सकती थी और लड़ती थी। यह तरीका उस पुराने तरीके से अच्छा था जब हर एक आदमी अकेला ही लड़ता था।
शुरू-शुरू की जातियाँ बड़े-बड़े परिवारों की तरह रही होंगी। उसके सब आदमी एक-दूसरे के रिश्तेदार होते होंगे। ज्यों-ज्यों यह परिवार बढ़े, जातियाँ भी बढ़ीं।
उस पुराने जमाने में आदमी का जीवन बहुत कठिन रहा होगा, विशेषकर जातियाँ बनने के पहले। न उनके पास कोई घर था, न कपड़े थे। हाँ, शायद जानवरों की खालें पहनने को मिल जाती हों। और उसे बराबर लड़ना पड़ता रहा होगा। अपने भोजन के लिए या तो जानवरों का शिकार करना पड़ता था या जंगली फल जमा करने पड़ते थे। उसे अपने चारों तरफ दुश्मन ही दुश्मन नजर आते होंगे। प्रकृति भी उसे दुश्मन मालूम होती होगी, क्योंकि ओले, बर्फ और भूचाल वही तो लाती थी। बेचारे की दशा कितनी दीन थी। जमीन पर रेंग रहा है, और हर एक चीज से भयता है इसलिए कि वह कोई बात समझ नहीं सकता। अगर ओले गिरते तो वह समझता कि कोई देवता बादल में बैठा हुआ उस पर
निशाना मार रहा है। वह भय जाता था और उस बादल में बैठे हुए आदमी को खुश करने के लिए कुछ न कुछ करना चाहता था जो उस पर ओले और पानी और बर्फ गिरा रहा था। लेकिन उसे खुश करे तो कैसे! न वह बहुत समझदार था, न होशियार था। उसने सोचा होगा कि बादलों का देवता हमारी ही तरह होगा और खाने की चीजें पसन्द करता होगा। इसलिए वह कुछ माँस रख देता था, या किसी जानवर की कुरबानी करके छोड़ देता था कि देवता आकर खा ले। वह सोचता था कि इस उपाय से ओला या पानी बंद हो जाएगा। हमें यह पागलपन मालूम होता है क्योंकि हम मेह या ओले या बर्फ के गिरने का सबब जानते हैं जानवरों के मारने से उसका कोई संबंध नहीं है। लेकिन आज भी ऐसे आदमी मौजूद हैं जो इतने नासमझ हैं कि अब तक वही काम किये जाते हैं।
अपने पिछले पत्र में मैंने कामों के अलग-अलग किए जाने का कुछ हाल बताया था। बिल्कुल शुरू में जब आदमी सिर्फ शिकार पर बसर करता था, काम बँटे हुए न थे। हर एक आदमी शिकार करता था और मुश्किल से खाने भर को पाता था। पहले पुरुषों और स्त्रियों के बीच में काम बँटना शुरू हुआ होगा, पुरुष शिकार करता होगा और महिला घर में रहकर बच्चों और पालतू जानवरों की निगरानी करती होगी।
जब आदमियों ने खेती करना सीखा
अपने पिछले पत्र में मैंने कामों के अलग-अलग किए जाने का कुछ हाल बताया था। बिल्कुल शुरू में जब आदमी सिर्फ शिकार पर बसर करता था, काम बँटे हुए न थे। हर एक आदमी शिकार करता था और मुश्किल से खाने भर को पाता था। पहले पुरुषों और स्त्रियों के बीच में काम बँटना शुरू हुआ होगा, पुरुष शिकार करता होगा और महिला घर में रहकर बच्चों और पालतू जानवरों की निगरानी करती होगी।
जब आदमियों ने खेती करना सीखा तो बहुत-सी नई-नई बातें निकलीं। पहली बात यह हुई कि काम कई हिस्सों में बँट गया। कुछ लोग शिकार खेलते और कुछ खेती करते और हल चलाते। ज्यों-ज्यों दिन गुजरते गए आदमी ने नए-नए पेशे सीखे और उनमें पक्के हो गए।
खेती करने का दूसरा अच्छा नतीजा यह हुआ कि लोग गॉंव और कस्बों में आबाद होने लगे। खेती के पहले लोग इधार-उधार घूमते-फिरते थे और शिकार करते थे। उनके लिए एक जगह रहना जरूरी नहीं था। शिकार हर एक जगह मिल जाता था। इसके सिवाय उन्हें गायों, बकरियों और अपने दूसरे जानवरों की वजह से इधर-उधर घूमना पड़ता था। इन जानवरों को चराने के लिए चरागाह की जरूरत थी। एक जगह कुछ दिनों तक चरने के बाद जमीन में जानवरों के लिए काफी घास न पैदा होती थी और सारी जाति को दूसरी जगह जाना पड़ता था।
जब लोगों को खेती करना आ गया तो उनका जमीन के पास रहना जरूरी हो गया। जमीन को जोत-बो कर वे छोड़ न सकते थे। उन्हें वर्ष भर तक लगातार खेती का काम लगा ही रहता था और इस तरह गॉंव और शहर बन गए।
दूसरी बड़ी बात जो खेती से पैदा हुई वह यह थी कि आदमी की जिंदगी अधिक आराम से कटने लगी। खेती से जमीन में खाना पैदा करना सारे दिन शिकार खेलने से कहीं अधिक आसान था। इसके सिवा जमीन में खाना भी इतना पैदा होता था जितना वह एकदम खा नहीं सकते थे इससे वह हिफाजत से रखते थे। एक और मजे की बात सुनो। जब आदमी निपट शिकारी था तो वह कुछ जमा न कर सकता था या कर भी सकता था तो बहुत कम, किसी तरह पेट भर लेता था। उसके पास बैंक न थे। जहाँ वह अपने रुपए व दूसरी चीजें रख सकता। उसे तो अपना पेट भरने के लिए रोज शिकार खेलना पड़ता था, खेती में उसे एक फसल में जरूरत से अधिक मिल जाता था। इस फालतू खाने को वह जमा कर देता था। इस तरह लोगों ने फालतू अनाज जमा करना शुरू किया। लोगों के पास फालतू खाना इसलिए हो जाता था कि वह उससे कुछ अधिक मेहनत करते थे जितना सिर्फ पेट भरने के लिए जरूरी था। तुम्हें मालूम है कि बैंक खुले हुए हैं जहाँ लोग रुपए जमा करते हैं और चेक लिख कर निकाल सकते हैं। यह रुपया कहाँ से आता है? अगर तुम गौर करो तो तुम्हें मालूम होगा कि यह फालतू रुपया है यानि ऐसा रुपया जिसे लोगों को एकबारगी खर्च करने की जरूरत नहीं है। इसलिए इसे वे बैंक में रखते हैं। वही लोग मालदार हैं जिनके पास बहुत-सा फालतू रुपया है, और जिनके पास कुछ नहीं है वे गरीब हैं। आगे तुम्हें मालूम होगा कि यह फालतू रुपया आता कहाँ से है। इसका सबब यह नहीं है कि आदमी दूसरे से अधिक काम करता है और अधिक कमाता है बल्कि आजकल जो आदमी बिल्कुल काम नहीं करता उसके पास तो बचत होती है और जो पसीना बहाता है उसे खाली हाथ रहना पड़ता है। कितना बुरा इंतजाम है! बहुत-से लोग समझते हैं कि इसी बुरे इंतजाम के सबब से दुनिया में आजकल इतने गरीब आदमी हैं। अभी शायद तुम यह बात समझ न सको इसलिए इसमें सिर न खपाओ। थोड़े दिनों में तुम इसे समझने लगोगी।
इस वक्त तो तुम्हें इतना ही जानना काफी है कि खेती से आदमी को उससे अधिक खाना मिलने लगा जितना वह एकदम खा सकता था। यह जमा कर लिया जाता था। उस जमाने में न रुपए थे न बैंक। जिनके पास बहुत-सी गाएं, भेड़ें, ऊँट या अनाज होता था वही अमीर कहलाते थे।
मुझे भय है कि मेरे पत्र कुछ पेचीदा होते जा रहे हैं। लेकिन अब जिंदगी भी तो पेचीदा हो गई है। पुराने जमाने में लोगों की जिंदगी बहुत सादी थी और अब हम उस जमाने पर आ गए हैं जब जिंदगी पेचीदा होनी शुरू हुई। अगर हम पुरानी बातों को जरा सावधानी के साथ जाँचें और उन तब्दीलियों को समझने की कोशिश करें जो आदमी की जिंदगी और समाज में पैदा होती गईं, तो हमारी समझ में बहुत-सी बातें आ जाएँगी। अगर हम ऐसा न
मुझे भय है कि मेरे पत्र कुछ पेचीदा होते जा रहे हैं। लेकिन अब जिंदगी भी तो पेचीदा हो गई है। पुराने जमाने में लोगों की जिंदगी बहुत सादी थी और अब हम उस जमाने पर आ गए हैं जब जिंदगी पेचीदा होनी शुरू हुई। अगर हम पुरानी बातों को जरा सावधानी के साथ जाँचें और उन तब्दीलियों को समझने की कोशिश करें जो आदमी की जिंदगी और समाज में पैदा होती गईं, तो हमारी समझ में बहुत-सी बातें आ जाएँगी। अगर हम ऐसा न करेंगे तो हम उन बातों को कभी न समझ सकेंगे जो आज दुनिया में हो रही हैं। हमारी हालत उन बच्चों की-सी होगी जो किसी जंगल में रास्ता भूल गए हों। यही सबब है कि मैं तुम्हें ठीक जंगल के किनारे पर लिए चलता हूँ ताकि हम इसमें से अपना रास्ता ढूँढ़ निकालें।
तुम्हें याद होगा कि तुमने मुझसे मसूरी में पूछा था कि बादशाह क्या हैं और वह कैसे बादशाह हो गए। इसलिए हम उस पुराने जमाने पर एक नजर डालेंगे जब राजा बनने शुरू हुए। पहले-पहल वह राजा न कहलाते थे। अगर उनके बारे में कुछ मालूम करना है तो हमें यह देखना होगा कि वे शुरू कैसे हुए।
मैं जातियों के बनने का हाल तुम्हें बता चुका हूँ। जब खेती-बारी शुरू हुई और लोगों के काम अलग-अलग हो गए तो यह जरूरी हो गया कि जाति का कोई बड़ा-बूढ़ा काम को आपस में बाँट दे। इसके पहले भी जातियों में ऐसे आदमी की जरूरत होती थी जो उन्हें दूसरी जातियों से लड़ने के लिए तैयार करे। अक्सर जाति का सबसे बूढ़ा आदमी सरगना होता था। वह जाति का बुजुर्ग कहलाता था। सबसे बूढ़ा होने की वजह से यह समझा जाता था कि वह सबसे अधिक तजरबेदार और होशियार है। यह बुजुर्ग जाति के और आदमियों की ही तरह होता था। वह दूसरों के साथ काम करता था और जितनी खाने की चीजें पैदा होती थीं वे जाति के सब आदमियों में बाँट दी जाती थीं। हर एक चीज जाति की होती थी। आजकल की तरह ऐसा न होता था कि हर एक आदमी का अपना मकान और दूसरी चीजें हों और आदमी जो कुछ कमाता था वह आपस में बाँट लिया जाता था क्योंकि वह सब जाति का समझा जाता था। जाति का बुजुर्ग या सरगना इस बाँट-बखरे का इंतजाम करता था।
लेकिन तब्दीलियाँ बहुत आहिस्ता-आहिस्ता होने लगीं। खेती के आ जाने से नए-नए काम निकल आए। सरगना को अपना बहुत सा वक्त इंतजाम करने में और यह देखने में कि सब लोग अपना-अपना काम ठीक तौर पर करते हैं या नहीं, खर्च करना पड़ता था। धीरे-धीरे सरगना ने जाति के मामूली आदमियों की तरह काम करना छोड़ दिया। वह जाति के और आदमियों से बिल्कुल अलग हो गया। अब काम की बँटाई बिल्कुल दूसरे ढंग की हो गई। सरगना तो इंतजाम करता था और आदमियों को काम करने का हुक्म देता था और दूसरे लोग खेतों में काम करते थे, शिकार करते थे या लड़ाइयों में जाते थे और अपने सरगना के हुक्मों को मानते थे। अगर दो जातियों में लड़ाई ठन जाती तो सरगना और भी ताकतवर हो जाता क्योंकि लड़ाई के जमाने में बगैर किसी अगुआ के अच्छी तरह लड़ना मुमकिन न था। इस तरह सरगना की ताकत बढ़ती गई।
जब इंतजाम करने का काम बहुत बढ़ गया तो सरगना के लिए अकेले सब काम मुश्किल हो गया। उसने अपनी मदद के लिए दूसरे आदमियों को लिया। इंतजाम करनेवाले बहुत-से हो गए। हाँ, उनका अगुआ सरगना ही था। इस तरह जाति दो हिस्सों में बँट गई, इंतजाम करनेवाले और मामूली काम करनेवाले। अब सब लोग बराबर न रहे। जो लोग इंतजाम करते थे उनका मामूली मजदूरों पर दबाव होता था।
अगले पत्र में मैं दिखाऊँगा कि सरगना का अधिकार क्योंकर बढ़ा।
मुझे उम्मीद है कि पुरानी जातियों और उनके बुजुर्गों का हाल तुम्हें रूखा न मालूम होता होगा।
मैंने अपने पिछले पत्र में तुम्हें बताया था कि उस जमाने में हर एक चीज सारी जाति की होती थी। किसी की अलग नहीं। सरगना के पास भी अपनी कोई खास चीज न होती थी। जाति के और आदमियों की तरह उसका भी एक ही हिस्सा होता था। लेकिन वह इंतजाम करनेवाला था और उसका यह काम समझा जाता था कि वह जाति के माल और जायदाद की देख-रेख करता रहे। जब उसका अधिकार बढ़ा तो उसे यह सूझी कि यह माल और असबाब जाति का नहीं, मेरा है। या शायद उसने समझा हो कि वह जाति का सरगना है इसलिए उस जाति का मुख्तार भी है। इस तरह किसी चीज को अपना समझने का खयाल पैदा हुआ। आज हर एक चीज को मेरा-तेरा कहना और समझना मामूली बात है। लेकिन जैसा मैं पहले तुमसे कह चुका हूँ उन पुरानी जातियों के पुरुष और महिला इस तरह खयाल न करते थे। तब हर एक चीज सारी जाति की होती थी। आखिर यह हुआ कि सरगना अपने को ही जाति का मुख्तार समझने लगा। इसलिए जाति का माल व असबाब उसी का हो गया।
जब सरगना मर जाता था तो जाति के सब आदमी जमा हो कर कोई दूसरा सरगना चुनते थे। लेकिन आमतौर पर सरगना के खानदान के लोग इंतजाम के काम को दूसरों से अधिक समझते थे। सरगना के साथ हमेशा रहने और उसके काम में मदद देने की वजह से वे इन कामों को खूब समझ जाते थे। इसलिए जब कोई बूढ़ा सरगना मर जाता, तो जाति के लोग उसी खानदान के किसी आदमी को सरगना चुन लेते थे। इस तरह सरगना का खानदान दूसरे से अलग हो गया और जाति के लोग उसी खानदान से अपना सरगना चुनने लगे। यह तो जाहिर है कि सरगना को बड़े इख्तियार होते थे और वह चाहता था कि उसका बेटा या भाई उसकी जगह सरगना बने। और भरसक इसकी कोशिश करता था। इसलिए वह अपने भाई या बेटे या किसी सगे रिश्तेदार को काम सिखाया करता था जिससे वह उसकी गद्दी पर बैठे। वह जाति के लोगों से कभी-कभी कह भी दिया करता था कि फलां आदमी जिसे मैंने काम सिखा दिया है मेरे बाद सरगना चुना जाए। शुरू में शायद जाति के आदमियों को यह ताकीद अच्छी न लगी हो लेकिन थोड़े ही दिनों में उन्हें उसकी आदत पड़ गई और वे उसका हुक्म मानने लगे। नए सरगना का चुनाव बंद हो गया। बूढ़ा सरगना तय कर देता था कि कौन उसके बाद सरगना होगा और वही होता था।
इससे हमें मालूम हुआ कि सरगना की जगह मौरूसी हो गई यानी उसी खानदान में बाप के बाद बेटा या कोई और रिश्तेदार सरगना होने लगा। सरगना को अब पूरा भरोसा हो गया कि जाति का माल असबब दरअसल मेरा ही है। यहाँ तक कि उसके मर जाने के बाद भी वह उसके खानदान में ही रहता था। अब हमें मालूम हुआ कि मेरा-तेरा का खयाल कैसे पैदा हुआ। शुरू में किसी के दिल में यह बात न थी। सब लोग मिल कर जाति के लिए काम करते थे, अपने लिए नहीं। अगर बहुत-सी खाने की चीजें पैदा करते, तो जाति के हर एक आदमी को उसका हिस्सा मिल जाता था। जाति में अमीर-गरीब का फर्क न था। सभी लोग जाति की जायदाद में बराबर के हिस्सेदार थे।
लेकिन ज्यों ही सरगना ने जाति की चीजों को हड़प करना शुरू किया और उन्हें अपनी कहने लगा, लोग अमीर और गरीब होने लगे। अगले पत्र में इसके बारे में मैं कुछ और लिखूँगा।
बूढ़े सरगना ने हमारा बहुत-सा वक्त ले लिया। लेकिन हम उससे जल्द ही फुर्सत पा जाएंगे या यों कहो उसका नाम कुछ और हो जाएगा। मैंने तुम्हें यह बताने का वायदा किया था कि राजा कैसे हुए और वह कौन थे और राजाओं का हाल समझने के लिए पुराने जमाने के सरगनों का जिक्र जरूरी था। तुमने जान लिया होगा कि यह सरगना बाद को राजा और महाराजा बन बैठे। पहले वह अपनी जाति का अगुआ होता था। अंग्रेजी में उसे
बूढ़े सरगना ने हमारा बहुत-सा वक्त ले लिया। लेकिन हम उससे जल्द ही फुर्सत पा जाएंगे या यों कहो उसका नाम कुछ और हो जाएगा। मैंने तुम्हें यह बताने का वायदा किया था कि राजा कैसे हुए और वह कौन थे और राजाओं का हाल समझने के लिए पुराने जमाने के सरगनों का जिक्र जरूरी था। तुमने जान लिया होगा कि यह सरगना बाद को राजा और महाराजा बन बैठे। पहले वह अपनी जाति का अगुआ होता था। अंग्रेजी में उसे 'पैट्रियार्क' कहते हैं। 'पैट्रियार्क' लैटिन शब्द 'पेटर' से निकला है जिसके माने पिता के हैं। 'पैट्रिया' भी इसी लैटिन शब्द से निकला है जिसके माने हैं 'पितृभूमि'। फ्रांसीसी में उसे 'पात्री' कहते हैं। संस्कृत और हिंदी में हम अपने मुल्क को 'मातृभूमि' कहते हैं। तुम्हें कौन पसंद है? जब सरगना की जगह मौरूसी हो गई या बाप के बाद बेटे को मिलने लगी तो उसमें और राजा में कोई फर्क न रहा। वही राजा बन बैठा और राजा के दिमाग में यह बात समा गई कि मुल्क की सब चीजें मेरी ही हैं। उसने अपने को सारा मुल्क समझ लिया। एक प्रसिद्ध फ्रांसीसी बादशाह ने एक मर्तबा कहा था 'मैं ही राज्य हूँ।' राजा भूल गए कि लोगों ने उन्हें सिर्फ इसलिए चुना है कि वे इंतजाम करें और मुल्क की खाने की चीजें और दूसरे सामान आदमियों में बाँट दें। वे यह भी भूल गए कि वे सिर्फ इसलिए चुने जाते थे कि वह उस जाति या मुल्क में सबसे होशियार और तजरबेकार समझे जाते थे। वे समझने लगे कि हम मालिक हैं और मुल्क के सब आदमी हमारे नौकर हैं। असल में वे ही मुल्क के नौकर थे।
आगे चल कर जब तुम इतिहास पढ़ोगी, तो तुम्हें मालूम होगा कि राजा इतने अभिमानी हो गए कि वे समझने लगे कि प्रजा को उनके चुनाव से कोई वास्ता न था। वे कहने लगे कि हमें ईश्वर ने राजा बनाया है। इसे वे ईश्वर का दिया हुआ हक कहने लगे। बहुत दिनों तक वे यह बेइंसाफी करते रहे और खूब ऐश के साथ राज्य के मजे उड़ाते रहे और उनकी प्रजा भूखों मरती रही। लेकिन आखिरकार प्रजा इसे बरदाश्त न कर सकी और बाज मुल्कों में उन्होंने राजाओं को मार भगाया। तुम आगे चल कर पढ़ोगी कि इंग्लैंड की प्रजा अपने राजा प्रथम चार्ल्स के खिलाफ उठ खड़ी हुई थी, उसे हरा दिया और मार डाला। इसी तरह फ्रांस की प्रजा ने भी एक बड़े हंगामे के बाद यह तय किया कि अब हम किसी को राजा न बनाएँगे। तुम्हें याद होगा कि हम फ्रांस के कौंसियरजेरी कैदखाने को देखने गए थे। क्या तुम हमारे साथ थीं। इसी कैदखाने में फ्रांस का राजा और उसकी रानी मारी आंतांनेत और दूसरे लोग रखे गए थे। तुम रूस की राज्य-क्रांति का हाल भी पढ़ोगी जब रूस की प्रजा ने कई वर्ष हुए अपने राजा को निकाल बाहर किया जिसे 'जार' कहते थे। इससे मालूम होता है कि राजाओं के बुरे दिन आ गए और अब बहुत-से मुल्कों में राजा हैं ही नहीं। फ्रांस, जर्मनी, रूस, स्विट्जरलैंड, अमरीका, चीन और बहुत-से दूसरे मुल्कों में कोई राजा नहीं है। वहाँ पंचायती राज है जिसका मतलब है कि प्रजा समय-समय पर अपने हाकिम और अगुआ चुन लेती है और उनकी जगह मौरूसी नहीं होती।
तुम्हें मालूम है कि इंग्लैंड में अभी तक राजा है लेकिन उसे कोई अधिकार नहीं हैं। वह कुछ कर नहीं सकता। सब इख्तियार पार्लमेंट के हाथ में है जिसमें प्रजा के चुने हुए अगुआ बैठते हैं। तुम्हें याद होगा कि तुमने लंदन में पार्लमेंट देखी थी।
हिंदुस्तान में अभी तक बहुत से राजा, महाराजा और नवाब हैं। तुमने उन्हें भड़कीले कपड़े पहने, कीमती मोटर गाड़ियों में घूमते, अपने ऊपर बहुत-सा रुपया खर्च करते देखा होगा। उन्हें यह रुपया कहाँ से मिलता है? यह रिआया पर टैक्स लगा कर वसूल किया जाता है। टैक्स दिए तो इसलिए जाते हैं कि उससे मुल्क के सभी आदमियों की मदद की जाए, स्कूल और अस्पताल, पुस्तकालय, और अजायबघर खोले जाऍं, अच्छी सड़कें बनाई जाएं और प्रजा की भलाई के लिए और बहुत-से काम किए जाऍं। लेकिन हमारे राजा-महाराजा उसी फ्रांसीसी बादशाह की तरह अब भी यही समझते हैं कि हमीं राज्य हैं और प्रजा का रुपया अपने ऐश में उड़ाते हैं। वे तो इतनी शान से रहते हैं और उनकी प्रजा जो पसीना बहा कर उन्हें रुपया देती है, भूखों मरती है और उनके बच्चों के पढ़ने के लिए मदरसे भी नहीं होते।
मुझे उम्मीद है कि पुरानी जातियों और उनके बुजुर्गों का हाल तुम्हें रूखा न मालूम होता होगा।
मैंने अपने पिछले पत्र में तुम्हें बताया था कि उस जमाने में हर एक चीज सारी जाति की होती थी। किसी की अलग नहीं। सरगना के पास भी अपनी कोई खास चीज न होती थी। जाति के और आदमियों की तरह उसका भी एक ही हिस्सा होता था। लेकिन वह इंतजाम करनेवाला था और उसका यह काम समझा जाता था कि वह जाति के माल और जायदाद की
मुझे उम्मीद है कि पुरानी जातियों और उनके बुजुर्गों का हाल तुम्हें रूखा न मालूम होता होगा।
मैंने अपने पिछले पत्र में तुम्हें बताया था कि उस जमाने में हर एक चीज सारी जाति की होती थी। किसी की अलग नहीं। सरगना के पास भी अपनी कोई खास चीज न होती थी। जाति के और आदमियों की तरह उसका भी एक ही हिस्सा होता था। लेकिन वह इंतजाम करनेवाला था और उसका यह काम समझा जाता था कि वह जाति के माल और जायदाद की देख-रेख करता रहे। जब उसका अधिकार बढ़ा तो उसे यह सूझी कि यह माल और असबाब जाति का नहीं, मेरा है। या शायद उसने समझा हो कि वह जाति का सरगना है इसलिए उस जाति का मुख्तार भी है। इस तरह किसी चीज को अपना समझने का खयाल पैदा हुआ। आज हर एक चीज को मेरा-तेरा कहना और समझना मामूली बात है। लेकिन जैसा मैं पहले तुमसे कह चुका हूँ उन पुरानी जातियों के पुरुष और महिला इस तरह खयाल न करते थे। तब हर एक चीज सारी जाति की होती थी। आखिर यह हुआ कि सरगना अपने को ही जाति का मुख्तार समझने लगा। इसलिए जाति का माल व असबाब उसी का हो गया।
जब सरगना मर जाता था तो जाति के सब आदमी जमा हो कर कोई दूसरा सरगना चुनते थे। लेकिन आमतौर पर सरगना के खानदान के लोग इंतजाम के काम को दूसरों से अधिक समझते थे। सरगना के साथ
हमेशा रहने और उसके काम में मदद देने की वजह से वे इन कामों को खूब समझ जाते थे। इसलिए जब कोई बूढ़ा सरगना मर जाता, तो जाति के लोग उसी खानदान के किसी आदमी को सरगना चुन लेते थे। इस तरह सरगना का खानदान दूसरे से अलग हो गया और जाति के लोग उसी खानदान से अपना सरगना चुनने लगे। यह तो जाहिर है कि सरगना को बड़े इख्तियार होते थे और वह चाहता था कि उसका बेटा या भाई उसकी जगह सरगना बने। और भरसक इसकी कोशिश करता था। इसलिए वह अपने भाई या बेटे या किसी सगे रिश्तेदार को काम सिखाया करता था जिससे वह उसकी गद्दी पर बैठे। वह जाति के लोगों से कभी-कभी कह भी दिया करता था कि फलां आदमी जिसे मैंने काम सिखा दिया है मेरे बाद सरगना चुना जाए। शुरू में शायद जाति के आदमियों को यह ताकीद अच्छी न लगी हो लेकिन थोड़े ही दिनों में उन्हें उसकी आदत पड़ गई और वे उसका हुक्म मानने लगे। नए सरगना का चुनाव बंद हो गया। बूढ़ा सरगना तय कर देता था कि कौन उसके बाद सरगना होगा और वही होता था।
इससे हमें मालूम हुआ कि सरगना की जगह मौरूसी हो गई यानी उसी खानदान में बाप के बाद बेटा या कोई और रिश्तेदार सरगना होने लगा। सरगना को अब पूरा भरोसा हो गया कि जाति का माल असबब दरअसल मेरा ही है। यहाँ तक कि उसके मर जाने के बाद भी वह उसके खानदान में ही रहता था। अब हमें मालूम हुआ कि मेरा-तेरा का खयाल
कैसे पैदा हुआ। शुरू में किसी के दिल में यह बात न थी। सब लोग मिल कर जाति के लिए काम करते थे, अपने लिए नहीं। अगर बहुत-सी खाने की चीजें पैदा करते, तो जाति के हर एक आदमी को उसका हिस्सा मिल जाता था। जाति में अमीर-गरीब का फर्क न था। सभी लोग जाति की जायदाद में बराबर के हिस्सेदार थे।
लेकिन ज्यों ही सरगना ने जाति की चीजों को हड़प करना शुरू किया और उन्हें अपनी कहने लगा, लोग अमीर और गरीब होने लगे। अगले पत्र में इसके बारे में मैं कुछ और लिखूँगा।
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